- सांगला कांडा की यात्रा , Sangla Meadows
- Short trek to Sangla Kanda
- Postcards from Baspa Valley : Sangla-Rakcham-Chitkul
- Things to do in Chitkul with Kids?
सांगला कहाँ है?
किन्नौर, हिमाचल प्रदेश में 2700 मीटर की ऊंचाई पर, किन्नर कैलाश की छत्र-छाया में बसी सांगला घाटी हिमाचल की सबसे खूबसूरत घाटियों में से है। इसी वादी में बसपा नदी, जो कि सतलुज की सहायक नदी है, के किनारे बसा है सांगला क़स्बा.
बसपा नदी के किनारे बसा सांगला किसी सपने सा जान पड़ता है. तीखी बसपा नदी, तीखे नोकदार किन्नेर कैलाश के विषम पहाड़, लकड़ी और पत्थर से बने किन्नौरी घर, सेब, नासपाती, चेरी जैसे फलों के बगीचे, सुमधुर और सुदर्शन किन्नौरी लोग.
शिमला से सांगला का रूट
इस सपने तक पहुँचने के लिए शिमला से कुफरी-फागु-नारकंडा-रामपुर-जिओरी-करछम का रास्ता लगभग 215 किमी है.
सांगला में क्या देखें?
सांगला से समान्यतः पर्यटक चितकुल, कामरु किला, रकछम आदि के सैर को जाते हैं और फिर आगे कल्पा, नाको, काज़ा के लिये निकलते हैं. लेकिन हमारे पास तीन दिन थे सांगला में, क्योंकि हमें तो कल्पा से ही लौट आना था.
स्थानीय लोगों से एक दिवसीय सरल ट्रेक के बारे में पूछा क्यूंकि सबसे छोटे पर्यटक की उम्र सिर्फ चार साल थी. उन्होंने सांगला कांडा और रकछम की पैदल यात्रा का सुझाव दिया।
सांगला कांडा
कांडा अर्थात किन्नौर में ऊंचाई पर बसे खेत और बगीचे, मैदान- कुछ कुछ बुग्याल की तरह। सांगला कांडा अर्थात सांगला गांव से ऊंचाई पर किन्नेर कैलाश की देख रेख में फैले मैदान, जहाँ सांगला वासियों के खेत हैं. सांगला वासी और उनके बच्चे भी दिन भर आते जाते रहते हैं.
सोचा, इनके समान हलके फुर्तीले पैर तो नहीं हमारे किन्तु ये दो घंटे से कम में चढ़ जाते हैं तो हम भी तीन चार घंटे में चढ़ ही लेंगे। उन्होंने दोपहर का भोजन और एक गाइड हमारे साथ दे दिया। तो चले सांगला कांडा की यात्रा पर.
सांगला कांडा ट्रेक कितनी ऊंचाई पर है?
सांगला कसबे की ऊंचाई है 2600 मीटर और सांगला कांडा की ऊंचाई है 3600 मीटर। ये तब मालूम नहीं था तो आप अंदाजा लगा ले कि चार वर्षीय ट्रैकर के साथ ये दुरूह साबित होने वाला था, खासकर तब जब हमें उसी दिन चढ़कर नीचे भी लौटना था.
चूँकि यात्रा से पहले ऐसी किसी ट्रैकिंग के लिए सोचा भी न था तो अपने आपको शारीरिक रूप से तैयार भी नहीं किया था, जो सामान्यतः एक डेस्क पर बैठे-बैठे काम करने वाले शहरी को अवश्य करनी चाहिए।
किन्नौर के बेरिंगनाग और बौद्ध मंदिर से होकर,
गांव के काष्ट और सलेटी पत्थर से बने मकानों से गुजरकर, बसपा नदी पर बने पुल को पार कर आने पर छोटे जी अड़ गए कि नदी में पत्थर फेंकने जाना है.
ये मुझे लगता है खानदानी समस्या है. बड़े बेटे ने ऐसे ही, जब वे दो साल के थे, डब्लिन,आयरलैंड में हमारा महंगा म्यूजियम का टिकट बेकार करवा दिया था क्योंकि उन्हें बाहर छोटे छोटे पत्थरों के मध्य स्थित फव्वारे में पत्थर फेंकने थे.
जैसे तैसे उन्हें मनाया गया और थोड़ा सा चढ़ने पर सांगला कसबे को मुड़ कर देखा तो कुछ ऐसा दिखा।
राह में बच्चे क्रिकेट खेलते मिले और फिर से ब्रेक लगा क्योंकि अब छोटे ट्रेकर को भी खेलना था. थोड़ा और चलने पर नीले चीड़ के पेड़ों ने अलग ही समां बांध दिया।
उस तरफ कोई नीला चीड़ न था और इधर नीले चीड़ के पत्ते धूप में झिलमिल करते, हवा से हिलकर राह को संगीतमय बना रहे थे.
चढ़ाई अब कठिन हो चली तो सभी के लिए लकड़ी का जुगाड़ कर लिया गया. लम्बे दरख्तों से भरी नीचे दिखती घाटी, जिनके बीच छुपा झरना दिख तो नहीं रहा था किन्तु अपनी गर्जन-तर्जन से उपस्थिति अवश्य दर्ज करवा रहा था.
इन्ही दरख्तों के साथ चलता, एक ओर घाटी और दूसरी ओर सटकर डटे पहाड़ में बना कठिन रास्ता, और लुभाने को किन्नर कैलाश का मंज़र।
बच्चे की जिद
अब छोटे ट्रेकर फिर से बैठ गए कि मैं तो नहीं चलूँगा, मुझे तो उस झरने के पास जाना है जिसकी आवाज आ रही है. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया कि जहाँ हम जा रहे है वहां भी पानी है. ऐसे ही जाने कितने हठ और मान-मनुहार के हथकंडे अपनाते हुए हम आगे को बढ़ते रहे.
करीब डेढ़ घंटे चढ़ लेने के बाद मनीष को छोटे ट्रेकर को कंधे पर उठाना और मुझे उठाना पड़ा सब सामान। कभी कंधे पर बिठाते और कभी उतार कर पैदल चलाते राह बहुत दुश्वार लग रही थी.
गाइड से पूछा ” भाई कितने देर और लगेगी?” जवाब मिला ” बस अब ज्यादा नहीं।” कुछ देर दम लेकर फिर चल पड़े.
सच पूछिए तो सांगला कांडा का ट्रेक करने का अर्थ है किन्नेर कैलाश की चुनौतीपूर्ण दैविक पहाड़ियों को एकदम समीप से उनकी पूर्ण वैभवता में देखना। सांगला से सांगला कांडा का ट्रेक हमें रूपिन पास ट्रेक के बेस तक पहुंचता है. रूपिन पास से ट्रेक उत्तराखंड में जाकर खुलता है.
चढ़ाई हुई और कठिन
किन्तु अभी तो आधा भी पार नहीं लगा था कि सामने एकदम खड़ी चढ़ाई देख कर पांव ठिठक गए. गाइड से पुनः पूछा-” भाई अब कितनी दूर है?”. जवाब मिला – इस चढ़ाई के बाद बहुत नज़दीक है.”
बैठ कर कुछ खाया-पीया और छोटे को लेके मनीष बढ़ चले. बड़े बेटे को मेरे साथ आने की जिम्मेदारी सौपी गयी. सही पढ़ा आपने- उसकी जिम्मेदारी थी कि मम्मी को होंसला न खोने दे. वो चढ़ता, फिर बैठ कर मेरा इंतजार करता।
न तो मेरी सांस फूल रही थी न ही पैर जवाब दे रहे थे लेकिन कमजोरी सी लग रही थी. अगले दिन जब बुखार चढ़ा तो समझ आया कि कमजोरी क्यों लग रही थी.
इस आधे घंटे की कड़क चढ़ाई के बाद हम बर्फ से ढकें पहाड़ों के इतने करीब आ गए कि जैसे अभी हाथ बढ़ा कर छू लेंगे। लेकिन हाथ बढ़ाने की तो क्या, हिलाने की भी ताकत न बची थी. मनीष के पाँव काँप रहे थे. अब उनके लिए उसे कंधे पर दस मिनट के लिए भी उठाना संभव न था.
लौटने की सोची। गाइड ने फिर से होंसला बंधाया- सर जी, थोड़ी देर आराम कर लो. अब तो आने को ही है. आपको बहुत अच्छा लगेगा।”
ट्रेक की सुंदरता
अच्छा न लग रहा हो ऐसा तो संभव ही न था. ऊंचाई पर मिलने वाली चिड़ियों और पेड़ों ने हमें बहुत ललचाया लेकिन बस दूर से ही निहार कर चुपचाप चलते रहे थे. फोटो लेने की तो बिलकुल हिम्मत न थी. चुली के पेड़ फूलों से लदे पड़े थे. वही चुल्ली जिसके बीजों से तेल निकालता है जिसे घी की जगह उपयोग में लिया जाता है.
चोटियां बर्फ से ढकीं हमारे सामने खड़ी थी- धारदार, तीखी, नुकीली, धूप की चकाचौंध को भी पछाड़ देने वाली बर्फ की धवलता से गौरवान्वित, गर्व से खड़ी, धरती और नीले अम्बर दोनों को चुनौती देती सी. मनुष्य की तो बिसात ही क्या जो उनसे प्रभावित न हो, चाहे जितना भी थका क्यों न हो!
गाइड से होंसला पाकर फिर उठ खड़े हुए. रास्ता जाकर ऊंचाई पर तराशे हरे भरे मैदान में खुला। खेतों को तैयार किया जा चुका था और बीजारोपण का कार्य चल रहा था. घोड़े घास में चर रहे थे.
बारिश की दस्तक
कुछ और आगे चल कर बादलों को उमड़ते देख एक लकड़ी की खुली कोठरी में शरण ली. छत पर पड़ती बारिश की बूंदों की थाप के साथ, कैलाश के अद्भुत दर्शन के भाव में, ठंडी हवाओं से सिहरती त्वचा के अनुभव में परांठे खा कर, सभी इन्द्रिय सुख लेकर, बारिश रुकने पर फिर से चल पड़े.
नीली झील
अब हम बर्फ के बीच में ही चल रहे थे. हमारे दोनों ओर पहाड़ की ढलानों पर भी बर्फ टिकी थी. वनस्पति भी अब बदल चुकी थी और धीरे धीरे treeline ख़त्म हो रही थी. और बीस मिनट चलने के बाद दृश्य ऐसे बदला की अवाक् ही खड़े रह गए. नीचे नीली झील निमंत्रण दे रही थी.
अब दोनों छोटे ट्रेकर भाग पड़े. अब कोई थकान नहीं लगी उन्हें क्योंकि झील में पत्थर जो फेंकने थे. गाइड उनके पीछे चला. हम दोनों तो राहत की सांस ले वहीँ बैठ गए. बच्चों ने भागकर हमारी तरफ आने को चाहा तो एक दूसरे का हाथ थाम कर मुस्कुराते चल पड़े झील के पास.
भगवान् का नाम ले कर जैसे तैसे छोटे को मनाते, गाइड की होंसलाअफजाई से चलते हुए आखिरकार झील तक पहुंच गए, यही हमारे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी.
ठंडी हवाओं के थपेड़े बहुत ही ताकतवर हो चले. बड़े ने आधा घंटे की ही दूरी पर ग्लेशियर चढ़ने को बहुत कहा लेकिन छोटे के साथ हमने ये मुनासिब न समझा।
वादा किया गया कि जैसे ही छोटा बड़ा होगा, हम ऐसी ही किसी ट्रैकिंग पर जाएंगे। वादा पूरा किया छोटे के सात साल के होने पर करेरी झील जाकर।
सांगला की झील में छोटे ने जमकर पत्थर फेंके और बड़े ही प्रसन्न मन से, यदा-कदा मनीष के कंधे पर बैठकर, अधिकांशतः कूदते-फांदते सांगला लौटने की यात्रा पूरी की. किन्तु ट्रैकिंग का नशा ख़त्म न हुआ.
अगले ही वर्ष, जब छोटा पांच साल का हुआ तो डबल डेकर रुट ब्रिज, चेरापूंजी की ट्रैकिंग की. उसमे भी लौटते वक्त छोटे को चलाने के लिए हथकंडे अपनाने पड़े.
लेकिन जैसे कि सयाने कहते है-अंत भला तो सब भला.
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सांगला कांडा का ट्रैक शानदार लगा,
आपके विवरण ने रोमांचक बना दिया।
हाहा खानदानी पत्थर फैंकने वाली आदत भला इतनीईईईईई आसानी से कैसे चली जायेगी।
तबीयत आपकी खराब हुई लेकिन लेख ने मन तरोताजा कर दिया।
सही कहा आपने- पत्थर फेंकने वाली आदत अभी भी बरकरार है, छोटे की. बड़े की छूट गई है. लेख तो आपके ब्लॉग से ही यादें तरोताज़ा होने पर लिखा था. पसंद करने के लिए धन्यवाद।
बेहद खूबसूरती से लिखा आपने अपने अनुभव को,
पर क्या आप जानते हो कि सांगला घाटी की सुंदरता को देखने के लिए, हमारी सरकारों ने सुरक्षा दृष्टि से सैलानियों पर प्रतिबंध बनाये रखा क्योंकि चीन अधिकरण तिब्बती सीमा पास में हैं, जो छितकुल गाँव से मात्र 20किलोमीटर की दूरी है….. और 1992में इस सुंदरता के निहारने के लिए सैलानियों के खोला गया….सच में सांगला घाटी नाम ही काफी है किसी प्रकृति प्रेमी को मंत्रमुग्ध करने के लिए, जी।
चितकुल गए थे हम, और इसकी तिब्बत से नज़दीकी ज्ञात थी, लेकिन ये पर्यटकों के लिए 1992 में खोला गया ये पता नहीं था. बताने के लिए और लेख सराहने के लिए आभार।
बहुत ही सुंदर लिखा है
धन्यवाद विनोद जी.
क्या कहु आपकी ब्लॉग की पंच लाइन family on road को सार्थक कर दिया…बहुत ही खूबसूरत जानकारी के साथ बढ़िया ट्रैक करवाया जी
धन्यवाद प्रतीक।