कान में द्रुत गति से ऊपर नीचे होते स्वरों ने दस्तक दी. घटम से उठती ताल और उन अपरिचित होते हुए भी परिचित से लगने वाले बोलों की ध्वनि ने बुद्धि को रोक दिया । उमड़ घुमड़ के गहराते भाव ने बांध लिया किसी अदृश्य के साथ। सहसा ह्रदय ही बस रहा देह में, भादों के मेघ के समान जल-आप्लावित सा ।
गान के बोल कुछ कुछ हिंदुस्तानी संगीत के तराने के समान थे, किन्तु भिन्न भी थे। आटे से सने हाथों को धोकर मैं घूमी देखने को कि ये क्या बज रहा था। मैंने तो पंडित जसराज के कृष्ण भजन लगाए थे और अभी ख़त्म हुए “गोविन्द दामोदर माधवेति” के खुमार से मैं उबरी भी नहीं थी। देखा तो ” कालिंग नर्तन तिल्लाना ” लिखा था और गायिका थी अरुणा साईराम। गूगल किया तो जाना कि कालिंग नर्तन तो कान्हा का कालिया मर्दन नृत्य है.
तिल्लाना – वो क्या है भला ? फिर खोजा और जाना कि कर्णाटक संगीत की एक विधा है, हिंदुस्तानी संगीत के तराने का ही दक्षिणी रूप , जिसमे तबले के बोल की जगह उसी के बंधु भाव समेटे कुछ पखावज , मृदंग, घटम के बोल होते हैं। तिल्लना के पहले दो भाग पल्ल्वी और अनुपल्लवी में ये ही बोल होते हैं और उसके अंतिम भाग चारणम में चुने गए गान के बोल होते हैं। इन्हे ऊर्जावान रागों में मद्य और तीव्र लय में गाया जाता है।
कालिया मर्दन की कथा तो सर्वज्ञात है पूरे भारत में, जब भगवन कृष्ण ने पवित्र यमुना के जल में विष फैलाते कालिया नाग के फन के ऊपर नाच कर उसका अहम् तोडा था।
कालिया नाग ने क्या जीव और क्या वनस्पति, सभी को डाह दिया था अपनी विषाग्नि में। प्रारब्ध, नियति जो भी कहें , अवश्य ही कोई प्रयोजन छुपा था परमपिता के बहीखातों में। प्रयोजन तो इसमें भी था कि कालिया नाग को जिन गरुड़ से भय था, वे ही गरुड़ एक योगी द्वारा श्रापित होकर वृन्दावन में प्रवेश नहीं कर सकते थे, जिसका लाभ उठाकर कालिया नाग वृन्दावन में यमुना जी में रहने निर्भय होकर चला आया ।
सदैव की तरह उस दिन भी राधे , कान्हा और गोप- गपियाँ खेल रहे थे गेंद , जमुना तीरे। खेल तो गेंद रहे थे और नैनों में प्रीत उमग रही थी। इतने में गेंद जा गिरी जमुना में। राधा लेने दौड़ी तो कान्हा ने उन्हें रोक कर स्वयं यमुना में छलांग लगा दी। अब ये तो प्रेम में आज भी होता है तो भला राधा-कृष्ण जैसी प्रीत, जिस प्रीत से आज भी प्रीत हो जाती है, उस प्रीत में भला राधा को क्यूँ कर विपत्ति में डालते कन्हाई ? बस बात इतनी कि कोई सात आठ बरस के बालक थे कन्हाई तब।
इधर कान्हा कूदे और उधर कालिया ने उन्हें अपने सर्प-कुण्डली में जकड़ लिया। कान्हा कहीं भी न दिखे। हाहाकार मच गया। यशोदा मैया माखन बिलोना छोड़ दौड़ी चली आईं। सभी तो प्रेमी थे कान्हा के, आंसुओं की धार बाह चली।
कालिया की जकड से निकलने को कान्हा ने अपने रूप का विस्तार किया। कालिया ने भी अपनी जकड मजबूत की। पानी में उनकी इस गुत्थम गुत्थी से हिलोरे उठने लगी। जब जब मनुष्य अपने सूक्ष्म रूप का विस्तार कर परमात्मा को प्रकट करने की यात्रा पर चलता है, ऐसा ही होता है. संसार उसे जकड़ने के बहुतेरे प्रयत्न करता है, भिन्न भिन्न ग्रंथियों में उसको बांधता है। इस दुविधा भरे मार्ग में एक और प्रभु तो दूसरी और संसार अपना जोर लगाता है, तब मनुष्य के मन में ऐसा ही आंदोलन चलता है, ऐसी ही लहरे उठती हैं। लेकिन मंथन के बिना अमृत कभी मिला है भला ?
अंततः कान्हा कालिया की पकड़ से मुक्त हो , उसकी पूंछ पकड़ तुरंत ही उसके सर पर जा चढ़े। पूरे ब्रह्माण्ड का भार धारण कर, उसके फन पर अपने पैरों से प्रहार आरम्भ किया। उन्ही पैरों से जिनसे वे कदम्ब पर चढ़ जाते थे , ग्वालिनों की दही माखन की ऊपर टंगी मटकी उतार लेते थे , जिनसे वे रस में पगे से राधा के समीप चले आते , जिनसे वे यशोदा मैया की मार से बचने को भाग भी जाते। वे ही पदकमल कालिया के शीश पर प्रहार पर प्रहार किये जा रहे थे। शीश कटे तो हरि मिले – कालिया का मानमर्दन होने पर उसे कृष्ण की महत्ता का ज्ञान हुआ , शरणागत भाव जगा।
उसी के झुके, मानमर्दित माथे पर नृत्यरत कान्हा यमुना के जल से बाहर निकले । उन्हें देख कर प्रेमी जन हर्ष और आश्चर्य के भाव से डूबते उतरते उनके प्रेम में बँध चले ।
पद्मश्री सम्मानित अरुणा साईराम गा रही थीं इस तिल्लाना को। जैसे कान्हा के मोहजाल में बंध कर सभी खो रहते थे अपनी सुधि, मैं भी इस कालिया मर्दन गीत को सुन, सुधि खो कर, साक्षात् कान्हा को ही देख रही थी जैसे कालिया के ऊपर नृत्य करते। गान के बोल, पायल पहने पैर की तरह धीमे तो कभी क्रोध से पटके पैर की भांति तीव्र प्रहार करते, तो अगले ही पल किन्ही बोलों से आभास होता कि यमुना जी जैसे डोल डोल जाती हो आशंका से।
बोल मुड़ते तो ज्ञात होता लहरें उठ उठ कर देखने का प्रयत्न करती कि क्या घट रहा है, तो इन्ही बोलों में कालिया की हिस्स सुनाई देती मुझे। जैसे जैसे गाने के बोल तीव्र और धीमे होते, ह्रदय भी उतनी ही लय ताल में धड़कता। कोई नृत्य नहीं हो रहा था मेरे सामने, कोई नाट्य भी नहीं। किन्तु गान की विधि, गान के बोल, ताल और लय किसी जीवंत कालिया मर्दन नृत्य का रूपक बन पड़े थे।
जैसे जैसे बोल बदलते , कभी लगता कि कान्हा के नृत्य में केवल उनके पैर नहीं, उनके घुंघराले केश भी उसी तरह लटक और झटक रहे हों। उनके हाथ के कंगन और पैरों की पायल ताल दे रहे हों। ये बांसुरी बजैया के कदम हैं कालिया के फन पर, ऐसा विश्वास नहीं होता। कहाँ बांसुरी की धीमी मधुर तान और कहाँ ये ऊर्जावान, द्रुत कालिया मर्दन गान। किन्तु उसके रूप अनेक और वह फिर भी एक, एक, एक।
कृष्ण के अधिकांश भजन, गीत श्रृंगार रास के अनेक भावों से भरे हैं, भक्ति, विरह, प्रेम, लीला, रूठना-मनाना , नटखट, चंचल किन्तु वीर रस और भक्ति का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण पहली बार सुना, सराहा।
पुनः पुनः चला कर सुना, कल्पना में देखा। फिर ख्याल आया कि इसके बोल और कवि को भी तो खोजूं। जाना कि महाकवि वेंकट सुब्बा अय्यर जिन्हे वेंकट कवि के नाम से अधिक जाना जाता है, उन्होंने लिखे ये अठारवीं सदी में।
तमिलनाडु के तंजावुर जिले मे औठुकादु गांव में बने मंदिर के आराध्य श्री कालिंग नर्तन पेरुमाल (कालिया मर्दन करते कृष्ण ) के भक्त थे वेंकट कवि। अपने आराध्य की भक्ति में उन्होंने कोई 400 भक्ति रचनाये लिखी और संगीतबद्ध की, गाई। यह तिल्लाना भी उन्होंने ही लिखा।
नीचे दिए वीडियो में इस गान के बोल और अर्थ दोनों दिए हैं. इसके अलावा आप इन्हे यहाँ भी पढ़ सकते हैं।
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हरि अनंत हरि कथा अनंता !!