आज से कुछ ढाई हज़ार वर्ष पहले घटित हुई ये घटना। भगवन बुद्ध को उनकी नियति से दूर रखने की यथासंभव चेष्टाएँ की गई किन्तु झलक एक वृद्ध , एक रोगी , एक शव और एक साधू की और राजकुमार से वे भगवान बुद्ध बनने की नियति की ओर चल पड़े.
सोलहवीं सदी में संत श्री दादू जी महाराज विराजते थे जयपुर राजस्थान में. उसी समय रज्जब अली खान की बारात सजी थी, दूल्हे के भेष में रज्जब जा रहे थे अपनी प्रेयसी से विवाह करने। मार्ग में संत दादू दयाल जी का आश्रम पड़ता था. उनके बारे में रज्जब ने बहुत सुन रखा थे, सो दर्शन का भाव मन में आया। नियति का ही कमाल था ये – प्रेयसी के ख्याल को हटा कर दादू दयाल जी के दर्शन का ख्याल आ गया. दादू दयाल से नज़रे एक पल को चार हुई, और प्रेयसी से जो नज़रे चार हुई थी वे भूल गयी। दूल्हे का वेश पहने पहने हुए ही दीक्षित हो गए और संतत्व को प्राप्त हुए.
बस एक क्षणिक विचार और एक पल की मुलाकात – नियति ने नियति बदल दी जीवन की। जाने कितने ही ऐसे तारों से भारत का आध्यात्मिक आकाश झिलमिला रहा है आज तक. मीरा बाई को उनकी मां ने हंसी में कह दिया कि ये जो सामने कृष्ण की मूर्ति है वही तेरा दूल्हा है और मीरा ने कृष्ण से लौ लगा ली.
ऐसी ही एक कथा है जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथ की। आज उसे बाँचने का भाव बना जब कुछ पुरानी यात्राओं की तस्वीरें देख रही थी। भाव मिटे या भूले , उससे पहले ही उसे लिख देने का प्रण हुआ.
श्रीसौर्यपुर – वर्तमान के शौरिपुर, उत्तर प्रदेश में यदु वंश के राजा हुए समुद्रविजय। वे भगवान् कृष्ण के पिता वासुदेव के भाई थे. रानी शिवादेवी उनकी पत्नी थी। शिवादेवी ने गर्भकाल में चौदह स्वप्न देखे स्वप्नों की गति- नियति जानने को गुणीजन को बुलाया गया. रानी के मुख से उन चौदह स्वप्नों को सुन कर गुणीजन मुदित हुए कि एक और पुण्यात्मा धरती पर जन्म ले रही है जो मानव मात्र को दुखों से छुटकारा दिलाएगी। हर्षित वाणी से राजा और रानी को बताया कि उनका भावी पुत्र तीर्थंकर बनेगा।
श्रावण मास की शुक्ल पंचमी को रानी शिवा देवी ने नील-श्याम वर्णी पुत्र रतन को जन्म दिया जिसका नाम रखा गया अरिष्टनेमि। कृष्ण, बलराम, अरिष्टनेमि साथ साथ बड़े हुए.
कालांतर में यदुवंश गुजरात में जा बसा। अरिष्टनेमि बड़े ही सुन्दर और शूरवीर थे, किन्तु स्वभाव से अंतर्मुखी और विरक्त भाव के थे. राजप्रासाद में रहकर सभी सुखों को तो भोग रहे थे किन्तु किसी में भी विशेष अनुरक्ति नहीं रखते थे.
कैसा स्वर्णिम काल रहा होगा वह ! कृष्ण भी थे वहीं – उतने ही सम्मोहक व्यक्तित्व के धनी और शौर्यवान। वे जीवन के सभी आयामों में लिप्त होते हुए भी निर्लिप्त थे , किसी सही-गलत की सतही परिभाषा को नहीं मानते थे। प्रेमा भक्ति और ज्ञान ध्यान के सभी मार्गों को उन्होंने स्वीकारा, प्रतिपादित किया। रास लीला रचाई, समर क्षेत्र में अध्यात्म का दीप जलाया , छल को भी छुआ तो नीत भी विचारी और मनुष्य जीवन का परम पद और लक्ष्य प्राप्त किया । और उसी देश काल में अरिष्टनेमि भी हुए। कृष्ण के बिलकुल उलट – उन्होंने तप-त्याग की राह चुनी और उन्होंने भी मनुष्य जीवन का परम पद और लक्ष्य प्राप्त किया। किसी का विरोध नहीं क्योंकि साधन तो साध्य के लिए है – साधन साध्य नहीं। कोई साधन किसी से कम या अधिक नहीं।
अरिष्टनेमि द्वारा विवाह में रूचि न दिखाने पर सभी चिंतित थे. कथा है कि सत्यभामा और अन्य रानियों ने उनसे कहा कि उनके पूर्ववर्ती हुए कई तीर्थंकरों ने भी विवाह भी किया और तब भी वे तीर्थंकर बने तो विवाह तो कोई बाधा नहीं मुक्ति के मार्ग में । जैसे भी हुआ, अरिष्टनेमि को विवाह के लिए मना लिया गया।
सत्यभामा की चचेरी अनुजा, राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती / राजुलकुमारी से उनका विवाह तय किया गया। अरिष्टनेमि जैसे वीर और कांतिमय व्यक्तित्व के धनी को अपना वर पाकर राजुल के हर्ष का पारावार न रहा।
विवाह में अब केवल एक दिन बचा था. राजुल की आँखों में नींद नहीं थी. नेमि सतत उसकी मन, बुद्धि और ह्रदय को आंदोलित कर रहे थे. उसे अभी भी नेमि का उसको वर रूप में मिलना कोई स्वप्न सा प्रतीत हो रहा था, क्यूंकि नेमि के बारे में तो प्रख्यात था कि वे विवाह में कदापि रुचि नहीं रखते हैं. आकर्षक देह, वीरोचित व्यक्तित्व, गरिमामय व्यवहार , गंभीर विचारक, संपन्न कुल, क्या नहीं था उन्हें किसी नवयुवती का मन हरने को। किन्तु किसी ने तब भी उन्हें कभी उन्हें अपने मन के किसी कोने में न बसाया था, किसी ने उनको पाने की एक क्षीण आकांक्षा भी न रखी थी उनका वैरागी भाव जानकर।
एक रात्रि और, और यही नेमि उसके जीवन साथी बनेंगे, ये तो सचमुच एक स्वप्न ही सा था. नेमि के साथ के स्वप्न राजुल खुले नैनो से देख रही, नैनों में नींद जो नहीं थी. पुष्पों के समान महकते कोमल स्वप्न में सरोबार होते राजुल की रात बीती।
उधर नेमि के मन में विचारों की उहापोह नहीं अपितु जीवन को लेकर चिंतन मनन चल रहा था। विचार जब चिंतन मनन को प्रेरित करें तब ही वे विचार कहलाने योग्य हैं, अन्यथा तो वे विकार हैं. वे चिंतन कर रहे थे कि क्या किसी मनुष्य के जीवन में कोई साथी हो सकता है कि वह जीवन के सुख दुःख कम कर सके? क्या सुख दुःख किसी और पर आलम्बित हैं या अपने ही मन का खेल है. सुख क्या है और दुःख क्या है ये वे तय नहीं कर पा रहे थे. इसी चिंतन मनन में डूबे वे गहन निद्रा में चले गए।
सूर्योदय होने पर राजुल ने कक्ष से बाहर देखा। आज का दिन कुछ अधिक ही सुन्दर प्रतीत हुआ. सखियाँ उन्हें छेड़ती हुई दुल्हन बनाने के लिए ले गई। नेमि उठे एक निरपेक्ष भाव से। नवयुवकों की हंसी ठिठोली के बीच उन्हें वर वेश पहनाया गया।
अरिष्टनेमि वर के वेश में अति आकर्षक लग रहे थे तो राजुल भी वधु के वेश में सौंदर्य की मूरत लग रही थी. सजे धजे अरिष्टनेमि, गाजे बाजे के साथ चल पड़े. वधु के घर तक पहुँचने से पहले राह में कहीं पशुओं का आर्त क्रंदन सुनाई दिया। वहीँ रुक गए। रथवान से पूछा। पूछने पर उन्हें बताया गया कि उनके विवाह के उपलक्ष्य में जो भोज रखा गया है, वे सभी पशु उसमे पकाये जायेंगे।
रथवान को रथ को बाड़े ले चलने का आदेश दिया। बाराती इस अचानक हुई घटना पर अचंभित हो गए. अरिष्टनेमि जब बाड़े में पहुंचे तो देखा कि पशु लौह कड़ियों से बंदी बना बाँध कर रखे गए थे. किसी की गर्दन तो किसी के पैर में बेड़िया थी. मृत्यु का भय उनकी आँखों में था. चीत्कार और क्रंदन वातावरण को चीर दे रहा था.
दौड़ के उस पशुओं के बाड़े में जा पहुंचे। निरीह पशुओं की मूक आँखों से दया की प्रार्थना अरिष्टनेमि के ह्रदय तक जा पहुंची। इस क्रंदन से उनका छुपा वैराग्य और विरक्त भाव प्रबल हो उठा. विचार उठा मन में – “जीवन दुःख है किन्तु जीवेषणा इतनी प्रबल है कि जीव फिर भी अपने आप को उसी छल में लिप्त रखता है, सुख की आस में असंख्य दुःख सहता है. “
एक क्षण में ह्रदय परिवर्तित हो गया। पिछले भवों की संचित ज्ञान की पूंजी थी जो अब एक क्षण में धधक कर चैतन्य हो गई। द्रवित होकर सभी पशुओं को उन्होंने मुक्त कर दिया और रथ को पुनः अपने घर की ओर मोड़ दिया।
राजा समुद्रविजय और रानी शिवादेवी ने आशंकित होते हुए अरिष्टनेमि से पूछा- “रथ क्यों लौटा दिया पुत्र? “
अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया- ” जैसे ये पशु बंधनों से जकड़े हुए थे, मनुष्य भी अपने कर्मों के बंधनों से जकड़ा हुआ है और बंधन कितना पीड़ादायक है ये अभी मैंने देखा। जैसे उन पशुओं को इस कोठरी से मुक्ति मिल गयी , मैं भी काल- कोठरी से अपनी मुक्ति की राह ढूंढूंगा।”
ऐसे वैराग्य और विरक्त उत्तर से उनके मात पिता और बंधु दुखी हो गए. अनेकों लोगों ने उन्हें भिन्न भिन्न तरीके से समझाने का प्रयत्न किया।
” अब तो पशुओं को छोड़ दिया गया है, तो अब विवाह से आपत्ति क्यों?”
“मनुष्यों की तुष्ट इच्छाएं क्या पूरी होने पर सुख लाती हैं ?आज जिव्हा के रस सुख के लिए कितने पशुओं को दुःख में रहना पड़ा। एक का सुख दूसरे की मृत्यु था। मुझे इस दुःख और सुख की गांठ खोलनी है। “
“अपने माता पिता की इच्छा का पालन करना तुम्हारा कर्त्तव्य है. तुम उन्हें दुःख दे रहे हो. तुमसे पशुओं का दुःख न देखा गया तो मात-पिता का दुःख क्यों तुम्हे द्रवित नहीं कर रहा?”
किन्तु जब वैराग्य का भाव जग जाए, ज्ञान का उदय आरम्भ हो जाए तो संसार के तर्क कुतर्क ही होते हैं. संयम रख के उन्होंने कहा-
” संसार के सभी जीवों को अपने कर्म स्वयं ही भुगतने पड़ते है. कोई किसी के दुःख-सुख का दाता नहीं है. न कोई किसी के कर्म ले सकता है ना अपने कर्म दूसरे को दे सकता है. मैं उनके साथ भी रहूँगा तब भी अपने वृद्धावस्था की पीड़ा, रोग और अंत में मृत्यु उन्हें ही झेलनी होगी। अपने कर्मों की टोकरी उन्हें ही साथ ले जानी होगी। कोई भी पुत्र इसमें उनकी कोई सहायता नहीं कर पायेगा। अगर पुत्रों से उन्हें सुख मिलता है तो और भी कई पुत्र हैं उनके, तब भी वे दुखी हो रहे हैं.
अब तक जाने हम कितनी बार किसी के पुत्र तो किसी के माता पिता बने लेकिन कोई किसी के कर्म न बाँट सका. ये तो इस देह से जुड़े नाते हैं और आवागमन को बाध्य जीव देह धरकर इन नातों को सत्य मानता है। अब मैं इस आवागमन से मुक्ति की, सत्य की खोज करूँगा।”
लाख प्रयत्न करने पर भी जब अरिष्टनेमि ने अपना विचार नहीं बदला तो माता पिता ने उन्हें दीक्षित होने की अनुमति दी. अब वे द्वारिका छोड़ रैवतक पर्वत, जिसे आज हम गिरिनार पर्वत कहते हैं, वहां जाकर दीक्षित हुए और वहीँ साधना करने लगे.
इधर जब राजुल कुमारी को इस घटनाक्रम का पता चला तो वे पछाट खाकर गिर पड़ी। सारा श्रृंगार उजड़ गया. ह्रदय में चोट लगी. राजुल ने तो कभी नेमि के लिए आस नहीं लगाई थी. सभी जानते थे कि सभी गुणों से संपन्न होते हुए भी नेमि की विवाह में कोई रूचि नहीं थी. जब नेमि ने राजुल के लिए हाँ की थी तो राजुल को विश्वास ही ना हुआ था कि उसे वो वर मिला है जिसकी सभी को कामना होती है। जब उन्होंने ही हाँ किया था तो अब यूँ हाथ छोड़ देने का क्या तुक भला !
राजुल का मन बहलाने को सखियों ने बहुतेरे जतन किये। पिता के सहेजे गए माणिक मोतियों के उपहार, राजसी वस्त्रों की संदूकचियाँ , कुसुमों की गंध, अतुल सौंदर्य – कुछ भी तो अब सुख नहीं दे रही थी. वस्तुएं तो वैसी ही थी जैसे पहले किन्तु अब मन का भाव बदल गया था. राजुल के सामने ज्ञान का तथ्य उजागर हुआ –
” वस्तुओं से सुख नहीं। “
किन्तु अभी भी राजुल को ये भ्रान्ति थी कि ये दुःख अरिष्टनेमि से विरह का है। अभी भी ये उसे स्पष्ट नहीं हुआ कि ये उसका ही मन था जो अरिष्टनेमि को पाने से प्रसन्न था ठीक वैसे ही जैसे उन माणिक मोतियों और सुन्दर वस्त्रों को पहनने और पाने से प्रसन्न था. मन ही है जो सुख दुःख के बंधन का कारण है, कोई और बाह्य वास्तु ये व्यक्ति या घटना नहीं।
ये भी मनुष्य के भले के लिए ही है। किसी झाड़ी पर काँटों में उलझी चुनर को झटके से खींचे तो चुनर फट जाती है, एक एक कर कांटा निकालना पड़ता है चुनर छुड़ाने के लिए. ऐसे ही किसी बिरले को छोड़ दें तो, सभी मनुष्य इस साधन की राह पर एक एक कदम ही चलते हैं और साध्य तक पहुँच जाते हैं. राजुल पर भी धीमे धीमे ज्ञान का रंग चढ़ रहा था। एक एक कर के अज्ञान का कांटा निकल रहा था और आत्मा रूपी चुनर छूटने की तैयारी कर रही थी.
दिन बीते। गिरिनार पर्वत पर अरिष्टनेमि को ज्ञान की प्राप्ति हुई, बंधनों से मुक्ति मिली और भगवान् नेमिनाथ कहलाये। इधर राजुल चिंतन-मनन और विरह की पीड़ा में डूबती संभलती रही.
कभी सोचती- “नियति ने ही तो नेमि को मेरा वर चुना था तो फिर नेमि ने क्यों मुझसे अपना हाथ छुड़ा लिया। मिलन की आस ही क्यों कर जगाई जब बिछोड़ा ही देना था?”
कभी सोचती- “जाने कितने भव में ऐसे ही कितने मिलन के सुख देखे होंगे और कितनी ही बिछुड़ने की पीड़ा। मृत्यु तो आखिर में सभी से बिछुड़ा ही देती है. तो कोई भी सुख तो चिर स्थायी नहीं। तो क्यों ना सुख दुःख के पार जाकर मैं भी उस चिरस्थायी सुख को ढूंढूं जिसे पाने के लिए नेमि ने मुझे छोड़ दिया।”
इधर भगवान् नेमिनाथ तो केवल ज्ञानी हो चुके थे. जब लोगों ने उन्हें राजुल की दशा के बारे में बताया तो वे कुछ नहीं बोले। पिछले कई जन्मों से उनका और राजुल का साथ रहा था भिन्न भिन्न रूप से। अब उन कर्मों के बीजों को भूंज कर नपुंसक कर देने का राजुल के पास भी उत्तम अवसर था. जो सत्य को पा लेता है वह गुरु, तीर्थंकर मनुष्यों के सांसारिक दुखों को नहीं मिटाने का प्रयत्न करता, वह तो मनुष्यों को संसार से ही निर्लिप्त करने का भाव और चेष्टा करता है.
जब राजुल का चिंतन प्रगाढ़ हुआ तो संसार के सत्य और मिथ्या रूप दिखे। सार और असार का भेद दिखने लगा। उसके भी मन में वैराग्य जगा। पशुओं के बंधन और पीड़ा से नेमिनाथ को वैराग्य जगा था तो विरह से उपजे चिंतन से राजुल का . गिरनार पर्वत चढ़ नेमिनाथ भगवान् से दीक्षा ली.
अपने जीवनकाल में भगवान् नेमिनाथ ने अनेकों आत्माओं को चेताया। गिरिनार पर्वत पर ही उन्होंने दीक्षा ली थी , वहीँ देह का त्याग किया और निर्वाण को प्राप्त हुए। इसीलिए गिरिनार पर्वत सभी मुमुक्षु आत्माओं के लिए बड़ा तीर्थ है।
- शौरिपुर जैन मंदिर आगरा जिले में बटेश्वर से तीन किमी दूर अंदर जंगल में बना हुआ है और यही भगवान् नेमिनाथ की जन्म स्थली है.
- गुजरात में जूनागढ़ में गिरिनार पर्वत तीर्थ है जहाँ भगवान् नेमिनाथ ने ज्ञान प्राप्त किया और यहीं उनका निर्वाण हुआ.
- जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकर (गुरु) हुए हैं, जैसे सिक्खों में दस गुरु। भगवान् आदिनाथ प्रथम तीर्थंकर हुए, भगवान् महावीर अंतिम तीर्थंकर हुए.
- भगवान् नेमिनाथ और राजुल कुमारी के विलग होने की घटना को लेकर गुजराती काव्य में फागु धारा में अनेकों काव्य रचे गए हैं.
- शौरिपुर उत्तर प्रदेश में आगरा से 80 किलोमीटर की दूरी पर है। कोलाहल और पर्यटकों से दूर ये स्थल बहुत ही शांत और रमणीक भी है.
- गिरिनार पर्वत पर और भी अन्य कई महत्ता वाले स्थल हैं जैसे अम्बा माता का मंदिर, दत्तात्रेय की गुफा आदि.
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