दक्षिण में पाँव पाँव पर प्रभु अपने साकार रूप में विराजमान है. कहीं भी निकल पड़िए, श्लोक उच्चारण, मंदिर की घंटी, नाद के स्वर, हाथों में पूजन सामग्री और मुख पर प्रभु-दर्शन का भाव लिए आपको श्रद्धालु निरंतर दिखाई देंगे। प्रसिद्ध मंदिरों की तो बात ही क्या करनी, यहाँ-वहाँ बने छोटे छोटे मंदिर भी आपको भाव में डुबोने में सक्षम हैं. ऐसा ही एक मंदिर है भोग-नन्दीश्वर, बंगलोर के निकट ही, नंदी हिल्स नाम से प्रसिद्ध पहाड़ी की तलहटी में.
नवीं सदी में बने इस मंदिर में पहुंचने पर तुम्हे वहां विराजमान देखकर बच्चों को समझ आ गया कि भगवान शिव का मंदिर है. और ये भी कि नन्दीश्वरा का अर्थ है नंदी के ईश्वर। किन्तु एक बालिका को तुम्हारे कान में कुछ कहता देख अचरज़ हुआ. कौतूहल जगा.
कथा है कि देवी पार्वती एक समय स्मृति खो बैठी। शिव जी व्यथित हो उठे. ध्यान में चले गए. तुम कैसे अपने आराध्य को अकेले छोड़ते। तुम भी उन्ही के सामने ध्यान में बैठ गए. जलंधर नाम के असुर ने मौका पाकर देवी का अपहरण कर लिया। अब देवो में भय जगा. कौन ये बात शिव जी को बताये। गणेश जी को शिवजी को यह कार्य सौंपा गया. किन्तु वे शिवजी को ध्यान से डिगा न सके. उन्होंने तुम्हे भी शिवजी के सामने ध्यानरत देखा। झट से उन्होंने तुम्हारे कान में मां के अपहरण की सूचना डाल दी. जो भक्त सो ही भगवन। तुम और शिव व्याकृत में तो दो हो, किन्तु हो तो एक ही. जो तुमने सुना वही ध्यानमग्न शिवजी ने सुना। और उठ खड़े हुए वो देवी पार्वती को बचाने। शिव पुराण में असुर जलंधर की एक अलग कथा है. किन्तु ये कथा मुझे एक श्रद्धालु ने भाव से सुनाई जो मुझे प्रीतिकर लगी. सो मेरे लिए तो यही कथा है.
तभी से तुम्हारे कान में अपनी बात कहने की प्रथा चल पड़ी.
तुम्हे देखकर ही मेरे बच्चे अनुमान लगते हैं कि यह तुम्हारे आराध्य देव शिव जी का मंदिर है. फिर वो धीरे धीरे त्रिशूल, डमरू, नाग और अन्य लक्षणों को भी ढूंढ लेते हैं. अब तुम तो जानते ही हो की इन सदियों पुराने पाषाण के बने मंदिरों में राजा रवि वर्मा से प्रभावित कैलेंडर कला वाली देव रूपों का निरूपण नहीं। ये तो शिल्प-शास्त्र, पुराण, वेदोचित नियम में बने प्रभु के निवास स्थान है. तो अभी बच्चे सीख ही रहे हैं और तुमसे अधिक कौन जटाजूटधारी का पर्याय होगा? अब वे तुम्हारे और हमारे, सभी के स्वामी के कुछ अन्य रूपों जैसे नटराज, भैरव, उमा-महेश्वर, अर्ध-नारीश्वर, को भी पहचान लेते हैं.
बुद्धिजीवी तुम्हे प्राचीन काल में खेती, पशुओं का महत्व होने, पशुओं की रक्षा के लिए एक पशुपतिनाथ के गढन जैसी अनेक बातों से भगवान शिव के साथ जोड़ते है.
इतिहासकार तुम्हे 3000 ईसा पूर्व की मोहनजोदाड़ो की पशुपति मुद्रा/सील से जोड़ते है, कहते हैं कि ये प्राचीनतम निरूपण है हिन्दू माइथोलॉजी का. फिर देखते हैं वो तुम्हे कुषाण काल में जारी स्वर्ण तथा कांस्य मुद्राओं में जहाँ तुम खड़े हो अपने स्वामी के साथ. वही कुषाणकाल जिसका एक अति प्रसिद्ध नरेश था कनिष्क (१२७-१५० AD ), जिसने चौथी बौद्ध कौंसिल का नेतृत्व किया था कश्मीर में, और बौद्ध धर्म का विधिवत विभाजन हुआ हीनयान और महायान में. उसके साम्राज्य की विशालता का भी इतिहास है, जो फैला था उज्बेकिस्तान, तजाखस्तान , अमू दरया और पाकिस्तान से भारत में मथुरा तक, लेकिन उसकी आध्यात्मिक गहराई भी बखानी गई है इतिहास में. तमिलनाडु के पल्लव वंश के तो राजकीय चिन्ह थे तुम. काल के ग्रास में सब गए, पर तुम बचे क्योंकि तुम तो स्वयं स्थिर हो अपने इष्ट में.
पुराण के अनुसार तुम ऋषि शिलाद के पुत्र हो जिन्होंने वर्षों की कठिन तपस्या से शिव को प्रसन्न कर तुम्हे पाया। नाम रखा नंदी। कुछ वर्ष बाद उन्हें ज्ञात हुआ तुम अल्पायु हो और डूब गए वे शोक में. तुमसे देखा न गया और फिर तुमने किया शिव जी को प्रसन्न अपने तप से और पाया अमरत्व का वरदान। यह भी की तुम्हे भी पूजा जायेगा उनके साथ. तब से आज तक तुम उनके साथ ही हो सर्वदा।
फिर आध्यात्मिक जन तुम्हे शिव के अव्याकृत रूप का व्याकृत प्रतिरूप कहते हैं. उनके अनुरूप तुम जीवात्मा को रुपित करते हो जिसे सर्वदा अपने परमेश्वर पर लक्षित होना चाहिए।
फिर आते हैं सर्व-साधारण और उनका भाव। वो किसी व्याख्या, वाद-विवाद, प्रमाणित-अप्रमाणित से नहीं उपजता। वो उपजता है कथा-किवदंती से, यानि ह्रदय के तार छूने से.
कहते हैं की तुम द्वारपाल हो शिवजी के इसलिए तुमसे अनुमति लेनी जरूरी है, तभी शिवालय में प्रवेश संभव है. इसी के चलते लोग प्रथम तुम्हारे दर्शन करते हैं, तब शिव जी के दर्शन को मंदिर में प्रवेश करते है. मुझे रूचता है इसका अलग भावरूप। भक्त भगवान से प्रथम है. भक्त नहीं तो भगवन कहाँ निवास करेंगे? और तुम से बड़ा भक्त कौन? सदा सजग, अविचल भाव से बैठते हो अपने देव के समक्ष, गुरुमुख भाव से, आदेश होते ही कर्म करने को तत्पर। तो पहले तो तुम ही वंदनीय हो कि तुम सरीखे हम भी बन पाए. फिर एक अलग भाव और भी है. अभी इतनी सामर्थ्य नहीं कि प्रभु से साक्षात् दर्शन को सह पाएं, तो पहले गुरु यानि भगवन्मय भक्त के साथ तार जोड़े। इसलिए भी तुम्हे पहले पूजते हैं हम.
इस दूसरे भाव को भी प्रत्यक्ष देखा है मैंने दक्षिण आकर. कुछ तुम्हारे दाईं और खड़े होकर अपने बाए हाथ की तर्जनी व अनूठे से तुम्हारे सींगो के ऊपर एक कोणीय मुद्रा बनाते है और उसमे से भगवान शिव के प्रथम दर्शन करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं।
अनेको मंदिरों में तो तुम इस तरह स्थापित हो की मकर-संक्रांति के दिन सूर्यदेव की रश्मियां भी सर्व-साधारण की ही तरह , तुम्हारे सींगों के मध्य से होकर ही शिवलिंग को प्रणाम करती है.
लेपाक्षी गए थे हम तुम्हारी एक ही शिला से गढ़ी सर्वाधिक विशाल मूर्ति के दर्शन करने।
हैलेबिडु की तुम्हारी छटा भी कुछ कम नहीं। न सिर्फ विशाल अपितु होयसाला वंश के मूर्तिकारों के हाथों से आभूषित अनुपम वैभवता में भी अपना दास भाव सहेज कर रख पाने में सफल.
फिर देखा तुम्हे कंबोडिया में खंडित रूप में, समय या मनुष्य, किसने किया ये ज्ञात नहीं।
इस नवयुग की भी अपनी ही मूढ़ताएं हैं. तुम bull हो, ox नहीं, ये तुम्हारे शिलामय मूर्तरूप में प्राचीनकाल से दर्शित किया जाता है, scrotum दर्शा कर. श्रद्धालु उसे छूकर , फिर प्रणाम कर, तब तुम्हारे कान में कुछ कहते हैं, अन्य तुम्हारे bull होने के साक्ष्य को पूज कर ही शिवालय में जाते हैं. अब जो तुम्हे कंक्रीट, प्लास्टिक आदि से बनाते है, वे तुम्हारे इस साक्ष्य को बड़ी चतुराई से छोड़ देते हैं. देवदत्त पटनायक ने कहा है -“In mythology, Shiva refuses to get married and be a householder. In other words, he refuses to get domesticated. But the Goddess appeals to him to marry her. Unless Shiva participates in worldly affairs, unless he serves her as a husband, children cannot be conceived and the world cannot be created. Shiva reluctantly agrees. He becomes the groom of the Goddess, but he is never the head of her household. He lives with her but is not the bread winner. He fathers children, but is not father to the children. Shakti becomes the autonomous matriarch. She becomes the cow, nourishing the world with her milk. He remains independent in spirit, refusing to be fettered by the ways of the world.”
वाहन हो तुम अपने स्वामी के किन्तु तुम तो इस तरह अपने स्वामी में एकनिष्ट हो कि तुम्हे स्वतंत्र रूप में भी पूजते हैं हम, ओ नन्दिकेश्वरा! और किसी देव-वाहन को यह गौरव प्राप्त नहीं।
गणाधिपति के गणो के नायक हो, शिव के प्रथम शिष्य हो, नाथ संप्रदाय के सर्व प्राचीन गुरुओं में से एक हो.
तुम्हारी इसी दृढ़निष्ठा और शरणागत, सेवा को तत्पर रहने के भाव की एक अन्य कथा भी बहुत रसमयी है. एक बार कैलाश नगरी में शिव-पार्वती पासे खेल रहे थे. पार्वती जी जीती पर जैसा की दांपत्य जीवन में होता है, उनमे इस जीत पर वाद-विवाद हो गया. तुम तो बैठे थे वहीँ, सो तुमसे निर्णय देने को कहा. तुम्हे शायद संसार की सीख ज्ञात न थी- कि पति-पत्नी के झगड़ों में दूसरे न कूदें। तुम कूदे और यह जानते हुए भी की जीत पार्वती जी की हुई, तुमने शिवजी को विजयी बता दिया। ये तुमने दूसरी गलती की. क्रोध में पार्वती जी ने तुम्हे रुग्ण होने का श्राप दिया।
तुमने क्षमा मांगते हुए कहा कि तुम अपने स्वामी को पराजित नहीं कह सकते।
तुम्हारी इस निष्ठा से उनका मन पिघला और उन्होंने तुम्हे इस श्राप से छूटने का उपाय बताते जुए कहा कि गणेश चतुर्दशी पर तुम्हे अपनी सर्वाधिक प्रिय वस्तु गणेश जी को भेंट करनी होगी। तुमने दूर्वा गणेशजी को भेंट की. तभी से हम भी चतुर्दशी को उन्हें दूर्वा भेंट करते हैं. मनुष्य बड़ा ही सयाना। दूर्वा तो तुम्हारी प्रिय वस्तु थी, तो हमें भी अपनी प्रिय वस्तु ही चतुर्दशी को अर्पित करनी थी. अहंकार से अधिक क्या और प्रिय मनुष्य को, उसे चढ़ा देते तो सर्वस्व पा जाते। ऐसा जान पड़ता है अभागे रहना मनुष्य का अपना ही निर्णय है. कैसी मधुर कथाएं है, खजाने की और इंगित करती हैं, सैन बैन से समझाती हैं, तर्जनी से इंगित करती हैं, परन्तु हम तो तर्जनी को ही पकड़ कर बैठ जाते हैं.
सुनो नंदी!
राह कठिन है, पाँव पाँव बटमार।
तुम सा जो हो रहे, पहुंचे आखिर पार.
बढ़िया पोस्ट जयश्री जी… आपकी ये पोस्ट नंदी पर शोध के लायक है …
लोगो को नंदी के कान में कहते हुए हमने तो मणिकर्ण और माउंट आबू के मंदिरों में भी देखा है
धन्यवाद रितेश जी. मेरा पहला अनुभव था नंदी के कान में अपनी बात रखने का. इतने साल उत्तर में रहकर भी कभी दिखा नहीं था.
फ़ोटो देखने से लग रहा आपने साउथ काफी घूम रखा है। इनमे कुछ जगहें मेरी भी देखी हुई हैं क्योंकि हाल फिलहाल बैंगलोर में रहने से यहीं ज्यादा घूम पाते हैं। यहां ऐसा माना जाता है कि अगर अपने मन की बात नंदी महाराज के कान में बता दें तो वो शीघ्र पूरी हो जाती है।
बंगलौर में रहकर तो आप अवश्य ही इन जगहों पर आसानी से घूम सकते हैं.
वाह ! आपकी यह पोस्ट पढ़कर हृदय गदगद हो गया ! नन्दी के बारे में इतनी जानकारी देने के लिए साधुवाद ।
धन्यवाद मुकेश जी.
भगवान को यदि कुछ देना ही है तो आपको सीधे देखा। आपने सच्चे दिल से भगवान को मन से पुकारने की इच्छा जागृत होनी चाहिए।
नंदी के कान में कहने की प्रथा जिसने भी बनाई।
मैं उस विषय पर नहीं जाना चाहता, भक्त और भगवान के बीच में कोई नहीं आना चाहिए। भगवान की सवारी भी नहीं…
बाकि सबकी अपनी श्रद्धा….
बहुत अच्छा लगा आपका कमेंट पढ़कर। जैसा कि आपने कहा ” सबकी अपनी श्रद्धा “.
यात्रा के दौरान अनेक रीत-रिवाजों, प्रथाओं, कथा-कहानियो, मत-मतांतरों से रूबरू होने का मौका मिलता है. ये पोस्ट उसी अनुभव को प्रस्तुत करती है.
नंदी के बारे में इतनी जानकारी पढ़कर और इतने जगह के नंदी के फोटो देख कर अच्छा लगा…वैसे नंदी के बारे में इतना नहीं पता था मुझे
धन्यवाद प्रतीक। घुमक्कड़ी यानि देखने, जानने , समझने का अथाह सागर।
उम्दा पोस्ट । कुछ अलग सी । जय नंदी महाराज ।।
धन्यवाद नरेश जी.