- Lakulisha – the last incarnation of Lord Shiva
- गजासुरचामृधारी शिव और कला दर्शन-विवेचन, Gajantak Form of Shiva
- Tripurantaka incarnation of Lord Shiva
- Shiva as Ardhanarishvara
- Harihara – The fusion form of Shiva and Vishnu
- Lingodbhava Murti of Lord Shiva
- The Story of Andhakasura
- Ravananugraha-Murti
भारत के प्राचीन मंदिरों में शिल्प शास्त्र और वास्तु शास्त्र दोनों का ही नियमपूर्वक पालन किया गया है. वास्तुशास्त्र जहाँ भवन निर्माण के नियम को रेखांकित करता है, जिसमे मंदिर, घर, महल, सामाजिक स्थल सभी के लिए नियम बने हैं, वहीँ शिल्प शास्त्र कला की चौसठ विधाओं के लिए नियम, मानक तथा रचना की रूपरेखाओं को निर्देशित करता है.
शिल्पशास्त्र के विषय व्यापक हैं – काष्ठकला, मूर्ति कला, पेंटिंग, वस्त्र निर्माण, आभूषण निर्माण, गायन, वादन, नृत्य, नाट्य, साहित्य, केश कौशल, पाक-कला और अन्य कई विधाएँ। शास्त्रों में कुल चौसठ मुख्य कलाओं का नामाँकन है. भगवान जगन्नाथ को चतुषष्टी कला का ज्ञाता माना जाता है. श्रीमद भागवत पुराण में श्री कृष्ण को अखिल-कला-आदिगुरु से भी सम्बोधित किया है.
एक पर्यटक के लिए मंदिर आस्था का स्थल होने के साथ साथ भारत के समृद्ध अतीत के प्रतीक भी हैं. यहाँ उसे शिल्प शास्त्र, वास्तु शास्त्र, और इतिहास से भी परिचित होने का अवसर मिलता है.
अधिकांश प्राचीन मंदिरों में मंदिर निर्माण अक्षरस वास्तु शास्त्र के नियमानुसार किया गया है, वहीँ मंदिरों में पाषाण में उकेरी गई सभी मूर्तियों में शिल्प शास्त्र को ध्यान में रखा गया है. शिल्प शास्त्र कोई एक शास्त्र न होकर अनेक आगमों, वेदों, पुराणों,और शास्त्रों में निहित अनेकानेक विषयों पर दिए गए नियमों का ज्ञान है.
मूर्ति कला या विग्रह कला का माध्यम पत्थर, धातु, मिट्टी या काष्ठ होता है. माध्यम जो भी हो, मूर्ति के निर्माण में तालमान अर्थात proportions जैसे कि शरीर की लम्बाई के अनुपात में मुख, गर्दन, पैर, कटी आदि, लक्षण अर्थात iconography जैसे कि शिव के हाथ में त्रिशूल, डमरू आदि तो विष्णु के हाथ में चक्र और शंख, मुद्रा यानि pose जैसे कि बैठे, खड़े या शयन मुद्रा, इन सभी के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं. कलाकार उन्ही निर्देशों के भीतर रहकर ही अपनी कला को भिन्न भिन्न आयाम दे सकता है.
इसके साथ ही अप्सराओं, सामान्य जान, पशु-पक्षी, आदि के लिए भी रूपरेखा है की उन्हें कहाँ और कैसे दर्शाया जा सकता है.
तो ऐसे ही हैलेबिडु, कर्नाटक के मंदिर का अवलोकन करने पर बाहर की दीवारों पर भगवान शिव के विभिन्न रूप देखने को मिले- नटराज, उमामहेश्वर, भैरव।
ये रूप पहले भी अनेक मंदिरों में देखे थे किन्तु एक नया रूप यहाँ पहली बार देखा- गजासुरचाम्रधारी शिव.
शिव द्वारा गजासुर वध की कथा
कथा के भिन्न रूप प्रचलित हैं, किन्तु मूल कथा ये है कि जब हाथी का रूप धरे, गजासुर नामक असुर के अत्याचार बहुत अधिक बढ़ गए तो शिव ने उसका संहार किया और उसकी खाल को लपेट कर, उसके सर पर खड़े होकर तांडव नृत्य किया।
उनके इस रूप को गजारी (गज+अरि यानि बैरी ), संहारी, गजासुरचाम्रधारी, गजान्तक आदि नामो से जाना जाता है. कामदेव को मारने पर कामारी/कामांतकारी, काल को मारने पर कालारी/कालांतकारी और गजासुर को मारने पर गजारी/गजासुरसंहारी ।
शिव के विभिन्न रूप
शिव के व्याकृत रूप को मुख्यतः चार रूपों में प्रकट किया जाता है-
संहारमूर्ति – जिसमे शिव आसुरी शक्तियों का वध करते हैं.
अनुग्रहमूर्ति – चन्देस्वरानुग्रहमूर्ति, रावणानुग्रहमूर्ति आदि जहाँ शिव वरदान देते हैं.
नृत्यमूर्ति – वीनाधर-दक्षिणामूर्ति आदि जिसमे शिव नृत्य करते हैं.
दक्षिणमूर्ति – जहाँ शिव को योगी, दार्शनिक के रूप में होते हैं.
अन्य रूप- गंगाधरमूर्ति, अर्धनारीश्वर आदि.
शिव के शिल्प उत्कीर्ण के नियम – शिव की iconography
शिव को समान्यतः अनेक भुजाओं वाले रूप में नहीं दिखाया जाता। लेकिन उनके संहारमूर्ति रूप, जो की उनका रौद्र रूप है, जैसे कि त्रिपुरारी, यमारी/कालांतकारी, गजसंहारी जैसे रूपों में उन्हें बहुर्भुज रूप में दर्शाया जाता है जिसमे उन्होंने कई शस्त्र उठाये होते हैं.
वस्तुतः शिव और विष्णु को दो रूपों में दिखाया जाता है- रौद्र/उग्र और सौम्य/शांत। जैसे की विष्णु के नरसिंह और परशुराम रूप रौद्र रूप में दिखाए जाते हैं. रौद्र रूप में अधिकांशतया बड़े नख, अनेक शस्त्र, विशाल नेत्र, मुंडमाल आदि होते हैं.
शिव के इस गजारी रूप को प्रतिमा में कैसे दर्शाया जा सकता है, इसके नियम शैव आगम में लिखे हैं. इसके अनुसार गज की पूँछ शिव के मस्तिष्क के पीछे हो, शिव का बायां पैर गज के सर पर हो, और दायाँ पैर उत्कुटिकासन के सदृश्य उठा और मुड़ा हुआ हो, जिससे कि नृत्य को दिखाया जाए. शिव चतुर्भुज या अष्टभुज या दशभुज रूप में हों. गज चाम्र को शिव के प्रभामंडल के रूप में बनाया जाये। लेकिन बहुतया शिल्पी इनमे से कुछ नियमों का पालन करता है और कुछ में अपनी कल्पना भरता है.
हैलेबिडु में शिव के गजासुर संहारी शिल्प
हैलेबिडु के ही मंदिर में, शिव के इस गजासुरसंहारी रूप के दो शिल्प विग्रह हैं.
प्रथम विग्रह में हाथी का चामृ, शिव के हाथों का स्थान और संयोजन जो कि तांडव मुद्रा को और अधिक उभारता है, शरीर की त्रिभंग मुद्रा जो बहुत ही सरलता से तांडव को दिखाती है, हाथी के चारों पाँव का उत्कीर्ण; उपलब्ध स्थान में घटना के पात्रों तथा शिव की भुजाओं, अस्त्रों और पैरों का लयबद्ध तालमेल।
घटना के मुख्य पात्र – गजासुर जो की धराशायी है और शिव जो कि संहार के बाद तांडव कर रहे हैं उनका चतुर अंकलन, बहुत ही सुन्दर और सम्पूर्ण रूप में विग्रह को अनूठा सामंजस्य प्रदान करते हैं.
अब दूसरे विग्रह को लीजिये। शिव के पाँव अवश्य मुड़े हैं, किन्तु शरीर सीधा है और हाथ का स्थान संयोजन भी उसे गति प्रदान नहीं करता। इसलिए तांडव का रूप उभर कर सामने नहीं आता. हाथों का संयोजन भी कुछ इतना लय ताल विहीन है की दर्शक का ध्यान तो नहीं ही आकर्षित करते, अपितु दर्शक को मेहनत करनी पड़ती है हाथों को ढूंढने में.
इसी तरह शिव के मुख पर रौद्र भाव पहले विग्रह में, उनके दांत और आँखों में, स्पष्ट है किन्तु दूसरा विग्रह भाव की स्पष्टता नहीं ला पता. प्रथम चित्र के शिल्पी की दक्षता अधिक है यह बहुत ही स्पष्ट है.
अब अगर शिल्प के सूक्ष्म लक्षणों के देखे तो प्रथम विग्रह अचंभित कर देता है. शिव के सबसे ऊपर वाले बाएं हाथ को ध्यान से देखने पर अँगुलियों के नाखून का भी महीन और सही नाप से निरूपण शिल्पी के हाथों का जादू प्रकट करता है.दूसरे विग्रह में सबसे ऊपर वाले दाएं हाथ की अंगुलियां स्थूल है.
पुनः देखिये। एक अंगुली का नख गजासुर की चमड़ी चीर कर बाहर निकला हुआ है. अर्थात शिव ने गजासुर को चीर कर संहार किया है और उसका चाम्र धारण किया है, इसका बहुत ही कलात्मक और स्पष्ट निरूपण करने में शिल्पी सफल हुआ है.
भुजंग-वलय (snake bracelet) भी शिव के ही हाथों में पहना जाता है. भुजंग वलय में जहाँ सर्प की पूँछ पुनः शरीर पर मिले, वहीँ उसका फ़न उठा होना चाहिए, ऐसा शिल्प-शास्त्र में निर्देश है. आप चित्र में ये स्पष्ट देख सकते हैं.
मुकुट, डमरू, त्रिशूल, मुंड, नंदी, आभूषण सभी में प्रथम विग्रह के शिल्पी की जादुई कला से दर्शक अभिभूत होता है.
इस प्रकार से पर्यटक शिव के इस नए रूप से परिचित होता है, विग्रह से उस काल की मूर्ति कला से अभिभूत होता है, और एक नयी सम्पदा प्राप्त करता है. हैलेबिडु के इस एक ही छोटे मंदिर में इतना कुछ है देखने को कि कोई एक पूरी पुस्तक ही लिख ले.
खैर, लौटते हैं पुनः शिव के इस गजान्तक रूप पर. उत्तर भारत में शिव का यह रूप अपेक्षाकृत कम प्रचलित है. किन्तु चोला और पांड्या राज्यवंशों में ये बहुत प्रचलित था. बल्कि तमिलनाडु के वझूवूर गाँव में स्थित वृत्तेश्वर मंदिर के अधिष्ठायक देव गजसंहारी शिव ही हैं.
विंध्य के इस पार आतताइयों की लूट और विध्वंस से अनेक धरोहरें बची रह पाई. उनका आनंद लेने के लिए अगर हमें कला, कला-लक्षणा, कला-दर्शन, इतिहास का संकेत मिल जाए तो एक-एक मंदिर को पर्यटक दिनों दिनों तक निहार सकते हैं, उसके स्थापत्य और कला-कौशल का ज्ञानमय अवलोकन करने का आधार बना सकते हैं.
अगली कड़ी में लिखूंगी भारतीय कला-दर्शन के किसी नए आयाम पर…
इतना ज्यादा हिस्टोरिकल जगह में इंटरेस्ट नहीं है पर आपकी रिसर्च जोरदार है और बहुत ही अच्छी जानकारी दी है आपने
धन्यवाद प्रतिक। समय के साथ साथ रूचि भी बदलती रहती है. और फिर सब की अपनी अपनी रूचि होना ही तो हमारा व्यक्तित्व बनाता है.