बदलते बसंत

तरुणाई जब आई, तो पहला बसंत आया जीवन में। उससे पहले बालपने में तो बस छुट्टी और त्यौहार ही होते थे ऋतु की पहचान।

देह जब छोटी रही, तब खेलने का भाव इतना बड़ा कि नानी की डांट भी जलती दुपहरियों में हमें छतों पर भागने दौड़ने से रोक नहीं पाती, फिर चाहे नकसीर ही क्यों न गिरने लगे। सर्दियों में डांट कर पहनाये गए स्वेटर भी हाथ पैरों की चुस्ती फुर्ती दबा नहीं पाते। दिन भर गलियों में सतोलिया के धूम मचाते,धूप में पक कर,धूल में सन कर घर लौटते। ठण्ड भले चाम छील देती, मां तेल मलते हुए गुस्साती, दादी धूप में बैठा के रगड़ रगड़ के शीत के दिए मैल और धूप के दिए रंग छुड़ाती, कायदे समझाती मगर मजाल कि कभी कुछ गुना हो हमने। बारिश आती तो और आनंद-भीगने के,पोखरों में कूदने के, चाहे बस्ता गीला हो जाए या कपडे छींट जाएँ।

सर्दी में पहले क्रिसमस की छुट्टी का इन्तजार, फिर मकर संक्रांति का। सर्दी जाते जाते होली का इन्तजार और वो गई तो परीक्षा सर पर आन पड़ती थी। परीक्षा से निबटे तो फिर रिजल्ट, गर्मी की छुट्टी, आमों का आगमन और नानी का घर। फिर स्कूल खुलने का इन्तजार, नई कॉपी किताबें, दोस्तों से मिलने की उमंग और इसी सब मे आ टपकती बारिश। साथ लाती तीज त्यौहार, मेहँदी , राखी। फिर अर्धवार्षिक परीक्षा और दीपावली।

ये था बालपन का ऋतु परिचय !
जब तरुणाई आई तो सब बदलने लगा धीरे धीरे।

तब सर्दियों में, मां के साथ खीचे पापड़, बड़िया बनवाते, छत पर बैठकर भाजी साफ़ करते, और वहीँ बैठ कर पढ़ते हुए, गिलहरियों और कबूतरों को भगाते। अब सूर्य देव की टेढ़ी निगाह से झुलसी त्वचा कैक्टस के काँटों सी खटकती। छरहरी देह को इतने स्वेटरों में छुपाने से देह तो ठिठुरन से बचती, पर मन को ठंडी गठरी में बांध जाती। भोर भारी लगती और साँझ घर में कैद हो कर दुबकती।

संक्रांति पर इधर सूर्यदेव अपनी राह पलटते और मन भी अंगड़ाई लेने लगता। धीमे धीमे स्वेटरों का बोझ कम होता जाता, त्वचा फिर से निखरने को लालायित दिखती । दिनचर्या फिर छत से नीचे घर पर लौट आने लगती।

गीले केशों को तब बरामदे में, हलकी धूप के साये में सुखाना बड़ा ही भला लगता। बासंती हवा के आगमन की आहट से ही माघ सिमटने लगता। इसी से उपजे उत्साह के नूपुर- संगीत में केशराशि से टपकती बूंदे कविता पढ़ती। निराला,पंत,जायसी तब कवि न रहते, ह्रदय के सम्राट बन आसीन रहते। तुलसा जी भी भी खिल उठती,शीत के वस्त्र छोड़ देती । वे भी तो स्त्रीमना ठहरी।

बसंत पंचमी बीतती, फिर दस दिनों में माघ भी मिट जाता। फाल्गुन आता तो घर के आँगन में लगे पौधों पर पत्तों के दल के दल फूट पड़ते, गुलाब की बहार को देख आम बौराँने लगता, जब आम पूरा ही बौरा जाता तो उसे देख भँवरे और मधुकित हुए जाते। इन सबको देख चुप रही कोयल भी कूकने आ जाती।

मध्य और पश्चिम भारत में तो बसंत पंचमी पर बासंती रंग दिखने लगता किन्तु उत्तर भारत में पसरती धुंध बसंती रंग फूटने न देती और हिमालय की हवाएं बसंती हवाओं को बांध के रखती।

बसंत पंचमी के बाद के चालीस दिन धरती नित नए श्रृंगार करती, हर दिन जैसे एक नई रस्म के लिए तैयार होती हो, होली पर तय हुए विवाह के लिए।

शाखें तन जाती, बाग़ इतरा जाते। मद में चूर हो गंध बिखेरते। बरामदे के एक कोने में लगी मधु मालती की बेल को भी बसंत चढ़ने लगता। श्वेत-गुलाबी-लाल कुसुम-गुच्छ से श्रृंगार कर, इत्र लगा इठलाती।

तब मन से प्राण खिंच खिंच कर नैनों में काजल से खिंची लक्ष्मण रेख को लांघने का यत्न करते। चंचल हुए मन की इस दौड़-धूप से उपजा परिश्रम अनायास ही गालों पर झलक जाता।

अब जब होली आती तो पिचकारी से रंग नहीं, भावों को भिगोती फुहार निकलती। रंग से अब केवल त्वचा नहीं, ह्रदय रंग जाता। होली तब खेल नहीं, मदन का रचा नाट्य बन जाती जो मन के मंच पर, सभी की नज़रों से छुपकर मंचन हो रहा होता।

तरुणाई का बसंत जब जीवन में आया तब ही बसंत ऋतु का रूप-रंग-रस-गंध देह-प्राण को छू पाया।

फिर तरुणाई भी साल दर साल बड़ी हुई हर नए बसंत के साथ। जीवन के साथी के साथ नए रंग में रंगी। फिर बच्चों के साथ तूत खाने जाने लगी। उनको माँ शारदा की प्रार्थना सिखाने लगी। उनके लिए केसरिया भात बनाने लगी। तेल मलते हुए उन पर गुस्साने लगी, उनके लिए पिचकारी और रंगो को संजोने लगी।

और कब, इसी सब के बीच, अनजाने से ही बसंत में अब निराला,पंत के साथ ही संतों की वाणी जिव्हा में घुल गई, ह्रदय में रच बस गई, पता ही न चला.

“साधो यह बसंत नहिं बार बार, तैं पाई मनुष्य देह सार यह औसर बिरथा न खोव, भक्ति बीज हिये धरती बोव”

“प्रेम नगर के माहिं, होरी होय रही। जबसों खेली हम हूँ चित दे, आपण ही को खोय रही। “

“सुरत रंग रंगीली हो कि हरि सा यार करो। करि सील-संतोष सिंगार, छमा की मांग भरो। ”

“हमरी उमरिया होरी खेलन की, पिय मोसों मिलि के बिछुरी गयो है. पिया मिले तब जियूं मोरी सजनी, पिय बिन जियरा निकर गया हो.”

अब भी बसंत लुभाती है, हौले से छू जाती है, हवा के संग बांसुरी बजाती है, मन-प्राण में रस-रंग घोल जाती है, जिव्हा पर मिठास भर गीत गवाती है, प्रीत को निखार कर भक्ति भाव लाती है।

तेरा आना शुभ है, शुभ्र है ओ रंगीली बसंत !

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