लेपाक्षी (आंध्र प्रदेश) के मुराल / चित्र

भारत की कला विरासत इतनी विस्तृत और भौगोलीय विस्तार लिए है कि चाहे कोई अपने गांव-शहर से बहुत दूर न गया हो तब भी उसने कोई ना कोई पुराना मंदिर तो अवश्य ही देखा होगा। सच ही है- यह देश सिर्फ एक संस्कृति ही नहीं, एक पूर्ण प्राचीन सभ्यता है; यहाँ गर ऐसा न हो तो कहाँ हो|  ये अलग बात है कि हम उन मंदिरों के शिल्प और स्थापत्य को उतना समझ नहीं पाते।

इन मंदिरों और गुफा-मंदिरों में जो चित्रकारी थी, अधिकांशतः समय के साथ उसका रंग धूमिल पड़ते-पड़ते मिट ही गया. इन भित्तिचित्रों का इतिहास आरम्भ होता है भीमबेटका की गुफाओं में, जहाँ आज से कुछ 30000 वर्ष पहले के आदिमानव निर्मित भित्तिचित्र मिलते हैं|

 गिरिजा कल्याणम पैनल

महिलाएँ – गिरिजा कल्याणम पैनल

उसके बाद चित्रकला की पुस्तक का पन्ना सीधे जाकर खुलता है चौथी से छठी ईस्वी सदी में बने, जग-प्रसिद्ध अजंता-एलोरा की गुफाओं में|  फिर सित्तनवसल,तमिलनाडु की जैन गुफाओं पर ठहरता है सातवीं सदी में| उसके बाद तँजावुर के ब्रीहीदिश्वरा मंदिर का पन्ना खुलता है 11वीं सदी में| यदा-कदा ये और भी स्थानों पर जाकर खुलता है, जैसे बादामी, बाघ, पीथलखोर लेकिन वहां बहुत ही मिट चले, फीके से, बचे-खुचे अवशेष हैं.

इसके बाद चित्रकला की कलम रूकती है लेपाक्षी, आंध्र प्रदेश के वीरभद्रस्वामी मंदिर पर. लेपाक्षी अपने विशालकाय, एक ही पत्थर से बने नंदी के लिए विख्यात है, हालाँकि इसे विख्यात होना चाहिए वीरभद्रस्वामी मंदिर में बने 16वीं शताब्दी में बने चित्रों के लिए.

तो आज हम इसी पन्ने को खोलकर देखेंगे।

इस पन्ने को पढ़ने से पहले ये जाने कि इस पाठ की महत्ता क्या है?

प्राचीन स्थापत्य और शिल्प की तो फिर भी कई महत्वपूर्ण धरोहर हमें मिली है लेकिन प्राचीन पेंटिंग की बहुत ही कम सम्पदा बच पाई है. उसमे भी हिन्दू मंदिरों की चित्रकला का भाग तो नगण्य है, अधिकांश जैन तथा बौद्ध गुफाओं में बनी पेंटिंग बच रही हैं.

एलोरा के कैलासनाथार मंदिर में बहुत ही छितरे से, बचे-खुचे कुछ ही टुकड़े रहे हैं, हालाँकि अजंता में बौद्ध और जैन गुफाओं के चित्र जग प्रसिद्ध हैं. तंजावुर के बृहदीश्वरा मंदिर में 11वीं सदी में बने चित्र दर्शको के लिए उपलब्ध नहीं हैं.

कुल मिलकर हिन्दू मंदिरों में चित्रकारी का धन हमें 16वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य के काल में बने हम्पी और लेपाक्षी के मंदिरों में ही मिलता है. उसमे भी हम्पी के चित्र पुनः रंग किये गए लेकिन लेपाक्षी के चित्र अभी भी अपने मूल स्वरुप में है. यही वजह है कि लेपाक्षी भारतीय चित्रकला के इतिहास का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है.

लेपाक्षी मंदिर

लेपाक्षी का पहला उद्धरण मिलता है “लेपाक्षय-पापनासना” नाम से स्कंदपुराण में, जहाँ ये दक्षिण भारत के 108 शैव स्थलों में रखा गया है. कहते हैं कि अगस्त्य ऋषि यहाँ कूर्मशिला पहाड़ी पर बनी गुफा में ठहरे थे और तभी उन्होंने ‘पापनाशेश्वरा’ को समर्पित मंदिर बनाया था.

शिव का कल्याणसुन्दर रूप – दूल्हे के वेश में, गिरिजा कल्याणम पैनल से.

वर्तमान मंदिर जिसे लेपाक्षी का वीरभद्रस्वामी मंदिर कहते हैं, शिव के ही स्वरुप वीरभद्र को समर्पित है. सती की मृत्यु पर, दक्ष प्रजापति को दण्डित करने के लिए शिव ने अपने एक बाल से वीरभद्र और भद्रकाली को उत्पन्न किया। वीरभद्र शिव का एक रौद्र रूप है. वीरभद्र पंथ (cult) विजयनगर काल में बहुत प्रचलित था. इस मंदिर को सन 1530 में, विजयनगर साम्राज्य के राजा अच्युतराय द्वारा नियुक्त क्षेत्रीय प्रमुख विरुपन्ना नायक और उनके भाई विरन्ना ने बनवाया था.

विरन्ना और वीरापन्ना , वीरभद्रस्वामी की पूजा में..वटपत्रासयि कृष्ण पैनल से

विरन्ना और वीरापन्ना , वीरभद्रस्वामी की पूजा में..वटपत्रासयि कृष्ण पैनल से

लेपाक्षी विजयनगर काल के स्थापत्य, शिल्प और चित्रकला का एक सम्पूर्ण एवं सुन्दर प्रमाण है. लेपाक्षी का ऐतिहासिक, पुरातत्विक और कलात्मक महत्त्व अनूठा है. इस मंदिर में विजयनगरीय काल के उत्कृष्ट शिल्प, संरक्षित mural पेंटिंग और पूर्व-कन्नड़ भाषा में उत्कीर्ण अभिलेख, इसे महत्वपूर्ण धरोहर बनाते हैं.

लेपाक्षी मंदिर का द्वितीय परकोटा।

लेपाक्षी मंदिर का द्वितीय परकोटा।

यह मंदिर त्रिकुटीय शैली में बना है, हालाँकि इसका तीसरा कूट जो रघुनाथ  स्वामी को समर्पित है, उसे बाद में जोड़ा गया था. मूलतः इसमें दो ही गर्भ-गृह थे, पहला मुख्य मंदिर वीरभद्रस्वामी की और दूसरा भगवान पापनाशेश्वरा का जो शिव का ही एक स्वरुप है.

मंदिर के प्रथम परकोटे से प्रवेश कर हम दूसरे परकोटे में बने दरवाजे से अंदर पहुंच कर, ध्वजा स्तम्भ को पार कर तीसरे और अंतिम परकोटे के प्रवेश द्वार से सीधे नाट्य मंडप में पहुँचते है, जो कि इस पूरे  मंदिर प्रांगण का सबसे सुन्दर हॉल है. पुनः सीढ़ी चढ़ कर, अंतराल या अर्ध मंडप से होते हुए, गर्भ गृह / मुख्यमंडप में पहुँचते है. चूँकि ये लेख पेंटिंग पर है अतः मंदिर के स्थापत्य और शिल्प को यहीं छोड़ दे रही हूँ.

हिन्दू, बौद्ध या जैन कला से क्या आशय है ?

लेपाक्षी की mural पेंटिंग्स और अजंता पेंटिंग्स में समानता है लेकिन लेपाक्षी के चित्रों में ताड़ पत्रों पर लिखे कल्पसूत्र और उनमे उकेरी जैन चित्रकला का प्रभाव अधिक है. जैन palm leaf manuscripts की ही तरह यहाँ भी लोगों को एक पंक्ति में दिखाया है, प्रोफाइल चित्र में भी दूसरी आँख का चित्रण जैन कला का स्पष्ट प्रभाव है. इसके लावा लाल रंग की पृष्ठ भूमि भी जैन चित्रकला का प्रभाव है.

लाल पृष्ठभूमि में चित्र और प्रोफाइल में भी दूसरी आँख

लाल पृष्ठभूमि में चित्र और प्रोफाइल में दूसरी आंख

भारतीय कला को सामान्यतः धार्मिक कला की परिभाषा में रखा जाता है, लेकिन किसी भी सूरत में इसे हिन्दू या जैन या बौद्ध कला के बॉक्स में कैद करना उचित नहीं है. सच कहें तो इंडियन आर्ट एक शैली है जिसे हिन्दुओं, बौद्धों और जैनियों ने अपने भाव व्यक्त करने का माध्यम बनाया।

उदाहरण के तौर पर किसी काल विशेष की बुद्ध या विष्णु के चित्र निरूपण में शैली तो सामान ही है, चित्रित घटनाक्रम या कथा ही भिन्न है. चाहे राम को दिखाना हो या बुद्ध महावीर को, वे हमेशा अन्य चरित्रों की अपेक्षा बड़े, अजानबाहु ही दर्शित किये जायेंगे। बुद्ध, या विष्णु या जैन तीर्थंकर की हस्त मुद्राएं, आसान मुद्राएं, शारीरिक अनुपात जैसे कि लम्बी भुजाये, ये सभी एक ही शैली या निर्देशों का अनुकरण करती हैं. इतना ही नहीं, इन तीनो धर्मो के प्रतीकात्मक चिन्हों में समानता है. चक्र, कमल, अनंत नाग, स्वास्तिक , कल्पवृक्ष आदि तीनो ही धर्मों के शिल्प और चित्रों में दर्शित होता है.

किन्तु बोलचाल के लिए हमें हिन्दू, बौद्ध जैन आदि नामकरण की आवश्यकता पड़ती है. और ये भी है कि किसी काल विशेष या स्थान विशेष में जैन या बौद्ध कला की अधिकता रही तो उनके मुख्य या नए अवयवों को उस कला के रूप में जाना जाने लगा और उसे फिर परंपरा या परिपाटी की तरह अपनाया गया.

लेपाक्षी के चित्र

वानर गण , राम पट्टाभिषेक पैनल से.

एक समय तक लेपाक्षी की पेंटिंग कालिख में दबी हुई थी. ASI के प्रयत्नों से नाट्य मंडप और मुख्य मंडप की कई पेंटिंग्स को पुनर्जीवन मिला। यहाँ चित्र दीवारों पर नहीं अपितु छत पर बने है अतः उन्हें देखना गर्दन दर्द तो देता है, पर उन्हें निहारने का मोह तब भी छूट नहीं पाता। मुख्य मंडप, नाट्य मंडप, अंतराल, प्रदक्षिणा पथ की छतों पर रामायण, महाभारत और पौराणिक कथाओं के चित्र निरूपित हैं.

गिरिजा कल्याणम पैनल में द्विमुखी अग्निदेव

गिरिजा कल्याणम पैनल में द्विमुखी अग्निदेव

अर्ध मंडप की छत पर चौदह पैनल हैं जिन पर शिव के विभिन्न रूपों जैसे दक्षिणामूर्ति, चँदेसा अनुग्रह मूर्ति, भिक्षाटन, अर्धनारीस्वर, कल्याणसुन्दर, त्रिपुरान्तक, आदि के चित्र हैं. iconography की दृष्टि से ये सभी पैनल बड़े महत्वपूर्ण हैं.

लेपाक्षी पेंटिंग विजयनगर काल की चित्रकला का सर्वश्रेष्ठ जीवंत प्रमाण है. चित्र सुव्यक्त, सहज, और जीवंत हैं. उभरी बोलती आँखे, तीखे नैन-नक्श इन्हे और भी सजीव बनाते हैं.

चित्रकारी का तरीका अजंता की तरह ही नैरेटिव आर्ट रूप में है, जिसमे पूरी घटना को एक पैनल में विभिन्न हिस्सों में बाँट कर, घटनाक्रमवत दिखाया जाता है.

शिव के विवाह में आठ दिशाओं के अधिष्टाक देव.

भारतीय चित्रकला को परंपरागत रूप से तीन भागों में समावित किया है- भूमिक floor, भित्ति wall, और प्रस्तर ceiling. सामान्यतः इन सभी चित्रों को भित्ति चित्र या murals कह दिया जाता है. ये यूरोपीय fresco से भिन्न है क्योंकि fresco में गीले प्लास्टर पर सीधे ही रंग लगाए जाते हैं, जबकि भारतीय murals में प्लास्टर के सूखने के बाद रंग लगाए गए हैं.

लेपाक्षी चित्रों की वस्त्र-विविधता, राम पट्टाभिषेक पैनल से.

लेपाक्षी चित्रों की वस्त्र-विविधता, राम पट्टाभिषेक पैनल से.

पेंटिंग में तत्कालीन समाज की स्टाइल और फैशन, स्त्री पुरुषों के गहने, कपडे, केश विन्यास, conical पगड़ी, आदि से प्रत्यक्ष होता है. अधिकांश साड़ी धारीदार या चौखाने की प्रिंट की हैं, जो कि आज भी दक्षिण भारत में बहुत प्रचलित है.

लेपाक्षी के चित्र सपाट है, यानि त्रिआयात्मक नहीं हैं. लेकिन रेखा की दक्षता साफ़ दिखती है. उससे भी अधिक विभिन्न चरित्रों के वस्त्र में जो विविधता है वह भारतीय चित्रकला में डिज़ाइन और पैटर्न के महत्व को बखूबी उभारती है.

शिल्प और चित्रकला का समायोजन, नाट्य मंडप, लेपाक्षी।

शिल्प और चित्रकला का समायोजन, नाट्य मंडप, लेपाक्षी।

नाट्य मंडप के चित्र

इस लेख में अधिकांश नाट्य मंडप के चित्रों के ही फोटो लगे है, क्यूंकि गर्भ मंडप में फोटॉग्रफी की अनुमति नहीं है. लेकिन इन चित्रों से भी आप विजयनगर साम्राज्य की और उस काल की चित्र कला की प्रशंसा कर पाएंगे।

नाट्य मंडप में प्रवेश करते ही प्रथम पर पैनल पर प्रसिद्ध चोला नरेश मनु निधि चोला (the Chola who follows Justice) से जुडी एक घटना है, जो तिरुवरुर में घाटी थी. एक राजकुमार के रथ से एक बछड़ा कुचल कर मर गया. उस बछड़े की माता गाय ने राजा के समक्ष गुहार लगाई। राजा को ज्ञात हुआ कि उसके अपने ही पुत्र द्वारा बछड़ा रथ से कुचल गया था.

राजा ने न्याय करते हुए राजकुमार को उसी रथ से कुचले जाने का आदेश दिया ताकि वह भी गाय की पीड़ा को भोग सके. ऐसे कठिन निर्णय के सभी देवलोक के वासी साक्षी हुए. शिव और पार्वती इसे देख धरती पर उतरे और बछड़े तथा राजकुमार दोनों को पुनर्जीवित किया।

ऋषभारूढमूर्ति : शिव पार्वती मानुनीति चोला को आशीर्वाद देते हुए, मनुनीति चोला कथा पैनल से

ऋषभारूढमूर्ति : शिव पार्वती मनुनीति चोला को आशीर्वाद देते हुए, मनुनीति चोला कथा पैनल से

इसके आगे बढ़ते ही हम नाट्य मंडप की मध्य भाग में पहुँचते है, जहाँ कमल शिल्प (लोटस रिलीफ सीलिंग) शैली से छत का मुख्य भाग शिल्प-सुसज्जित है. इसके चारों ओर के छोटे पैनल पर बने चित्र किरातार्जुनीय कथा को दर्शाते हैं.)

किरात अर्जुन कथा पैनल से एक दृश्य।

किरात अर्जुन कथा पैनल से एक दृश्य।

किरात अर्जुन की कथा का एक उत्कृष्ट शिल्प हमें महाबलीपुरम में मिलता है.

सुविधा के लिए निम्न प्लान से आप नाट्य मंडप के चित्रों को समझ सकते हैं. नाट्य मंडप में प्रवेश करने के बाद बाईं से दाईं और चलते हुए, छत पर निम्न पैनल चित्रित है.

1 : द्रौपदी स्वयंवर
2 : वाटपत्रासयि कृष्णा और वीरभद्र
3 : गिरिजा कल्याणम (शिव पार्वती विवाह)
4 : शिव पार्वती शतरंज खेलते हुए
5 : नटराज पैनल जो कि बहुत ही मिट चूका है.
6 : राम पट्टाभिषेक -यह भी कम शेष रहा है.

शिव कालभैरव रूप में, द्रौपदी स्वयंवर पैनल

शिव कालभैरव रूप में, द्रौपदी स्वयंवर पैनल

शिल्प की ही तरह, पेंटिंग में भी किसी व्यक्ति विशेष या राजा का चित्र मिलना दुर्लभ है, क्योंकि ईश्वर ही सदा से लोक मानस के लिए मुख्य था. भारतीय  दर्शन में सिर्फ ईश्वर, आत्मा, परमात्मा ही शाश्वत है, सत्य है; शेष सभी भवसागर में उठने वाली लहरें हैं जो उठती ही मिटने के लिए हैं. यही भाव कला में भी फलित हुआ. नश्वर को छोड़कर, शाश्वत को ही दर्शाया।

लिखे

अग्नि देव जिन्हे द्विमुखी दिखाया है, गिरिजा कल्याणम पैनल।

लेकिन कला तो कला ही है. कलाकार किसी भी घटना का निरूपण करे, कई सारे तत्त्व तो वह अपने इर्द-गिर्द से ही लेता है जैसे कि वेश-भूषा, केश-विन्यास, गहने, वनस्पति, जीव जंतु आदि. प्रत्यक्ष रूप से तो वह किसी धार्मिक कथा या घटना को दिखता है किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से वह उस देश काल के समाज को भी दर्शाता है. एक पर्यटक के लिए मंदिर तो भाव में बहने का स्थान है ही, शिल्प और कला भी उसे पुनः पुनः शाश्वत की और इशारा करते है, किन्तु हम ठहरे गृहस्थी। शाश्वत को देखते हुए अनजाने ही पुरातन समय की खिड़की में भी झांक लेते हैं.

लेपाक्षी के mural में पुरुषों के सर पर जो conical headgear है, उसे कुलावी कहते हैं. विशेषज्ञों ने इस पर बहुत शोध चर्चा की है. कुछ कहते हैं  कि पल्लव राजा(3 -9 वीं सदी) उत्तर से आये थे, जो कि मूलतः पर्शिया से आये होंगे। इस धारणा  के प्रतिपादन के लिए तर्क है कि प्राचीन पल्लव राजाओं के  conical टोप में शिल्प मिलते है.

जो भी वजह हो, इस लेपाक्षी की विरासत से ही हमें इस कुलावी पगड़ी के होने का पता चलता है.

किरात अर्जुन कथा पैनल से, लेपाक्षी mural

अर्जुन इंद्र को प्रणाम करते हुए, किरात अर्जुन कथा पैनल से, लेपाक्षी

अजंता के चित्रकार , जिन्होंने हमारे लिए कला के अमूल्य रत्न छोड़े, अवश्य ही उनके पहले से ही चित्रकला के नियम और टेक्निक रहे होंगे, जो वेद-पुराणों की तरह ही मौखिक रूप से ही एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित हुए होंगे। अन्यथा जो कथात्मक, वर्णात्मक और भावात्मक दक्षता और तकनीक तथा कला-पद्धति अजंता के चित्रों में दिखती है वह अचानक से उस उत्कृष्टता को नहीं छू सकती है.

ब्रह्मा, नंदी एवं अन्य, गिरिजा कल्याणम पैनल

ब्रह्मा, नंदी एवं अन्य: गिरिजा कल्याणम पैनल

अजंता काल के बाद हमें शास्त्र मिलते है जो पूर्णरूपेण चित्रकला के बारे में ही लिखे गए है. सम्भवतः अजंता के कलाकारों ने भावी पीढ़ी के लिए उन नियमों और निर्देशों को लिख कर छोड़ना उचित समझा हो. कुछ मुख्य ग्रन्थ जो 6-7वीं शताब्दी में लिखे गए, अर्थात अजंता के बाद लिखे गए, वे हैं- विष्णुधर्मोत्तरा पुराण, समरगा सूत्रधार आदि.

द्रौपदी स्वयंवर पैनल: राजा द्रुपद की गोद में द्रौपदी

द्रौपदी स्वयंवर पैनल: राजा द्रुपद की गोद में द्रौपदी

विष्णुधर्मोत्तर पुराण

इन सभी में विष्णुधर्मोत्तर पुराण का अधिक महत्व है. इसमें निहित चित्रसूत्र भाग को चित्रकला की व्याकरण भी माना जाता है. यह  न केवल चित्रकला की आधारभूत रुपरेखा निर्धारित करती है, अपितु सैंकड़ों सूक्ष्म बिंदुओं का भी विस्तारपूर्वक विवरण विवेचन करती है. इसमें सतह को तैयार करने की विधि, रंगो को बनाने का विधि, शेडिंग, शारीरिक अनुपात, विभिन्न सामाजिक वर्गों के लोगों का निरूपण करने का अनुपात, और प्रतीकों तथा लक्षणों का भी विस्तार से विवरण है.

हजारों अक्षर लिखने के बाद चित्रसूत्र कहता है कि नियम चित्र नहीं बनाते, चित्र तो चित्रकार के ह्रदय और भाव से बनते है. कई प्रसिद्ध कला पारखियों का कहना है कि अजंता की पेंटिंग में भी कई नियमों को नकारते हुए चित्रण किया गया है, किन्तु उनमे जो “लावण्य” है, वही महत्वपूर्ण है, दर्शकों को बांधता है. स्पष्ट है कि नियमों में रहकर भी चित्रकार के पास भावाभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रही होगी।

डॉ हर्ष दहेजिया अपनी पुस्तक “The Advaita of Art” में लिखते है:

कला को देखने के दो आयाम हैं – साक्षार्थ तथा परोक्षार्थ।
साक्षार्थ: कला के रूप-वस्तु के देखने और आनंदित होना।
परोक्षार्थ : कला के भाव-रस या गुण विशेष के देखना और आनंदित होना।

भारतीय कला-परंपरा में, कलाकार विभिन्न रूपों और तकनीकों से एक भाव, विचार, दर्शन को निरूपित करता है. दर्शक के ऊपर निर्भर है कि वह सुहृदय और रसिकता से कला में निहित भाव, विचार, दर्शन को समझे और भाव-विभोर हो.

शिव पार्वती पाणिग्रहण

जब भी आप अगली बार कहीं प्राचीन चित्रकला देखे तो उसे सराहने के लिए चित्रसूत्र में दिए गए इस निर्देश को अवश्य याद रखें- चित्र के मूल अवयवों के बारे में चित्रसूत्र कहता है,

“विशेषज्ञ रेखाओं को (delineation and articulation of form) को देखता है, पारखी प्रकाश और छाया के रूपं को देखता है, स्त्रियां गहने, सामन्य-जन रंगों की विविधता और शोभा से प्रभावित होते हैं, अतः चित्रकार में ऐसी दक्षता चाहिए कि सभी उसके चित्र से आनंदित हो सकें।”

मेरे विचार से लेपाक्षी के चित्र अवश्य ही इस कसौटी पर खरे उतारते हैं.

वटपत्रासयि कृष्ण

वटपत्रासयि कृष्ण

TRAVEL TIPS:

लेपाक्षी बैंगलोर से लगभग 130 KM, कर्नाटक- आंध्र सीमा पर स्थित है.

मंदिर के भीतर किसी भी मौसम में घूमा जा सकता है.

12 Comments

  1. लेपाक्षी जाने का बहुत मन था पर उस जगह के लिये जहां बिना किसी सहारे के स्तम्भ अपने स्थान पर खड़े हैं। आज आपने एक और उद्देश्य जाने के लिए दे दिया।

    1. धन्यवाद हर्षिता।
      लेपाक्षी के सभी pillars पूरे सहारे पर खड़े है, एक को छोड़ कर.और ये एक pillar भी कोई एक mm छूट गया है समय के साथ.लेकिन चूँकि बाकि सभी pillars intact है, तो load की समस्या नहीं।
      लेपाक्षी अपने monolithic नंदी और चित्रों के लिए ही प्रख्यात है.

  2. आपके द्वारा दी गयी जानकारी अद्भुत होती है….ऐसा लगता है कि आप इतिहास की उन जगहों को जीकर मेहसूस कर के आती होगी…और आपके लिखे ज्ञान को पढ़कर समझने लायक भी कम ही है हम…बहुत ही जबरदस्त लेखन….

    1. प्रतीक ,ज्ञान नहीं जिज्ञासा, उत्कंठा है,जिसके लिए मैं पढ़ती हूँ, और फिर उसमे से कुछ सरल भाषा में लिख देने का प्रयास करती हूँ.
      सराहना के लिए धन्यवाद।

  3. बेहद उम्दा लेख । पहले लेपाक्षी के स्तंभ के बारे में ही पढ़ा था । आपने दूसरे पहलू से परिचय कराया । धन्यवाद।

    1. धन्यवाद हरेंद्र।
      लेपाक्षी के सभी pillars पूरे सहारे पर खड़े है, एक को छोड़ कर.और ये एक pillar भी कोई एक mm छूट गया है समय के साथ.लेकिन चूँकि बाकि सभी pillars intact है, तो load की समस्या नहीं।
      लेपाक्षी अपने monolithic नंदी और चित्रों के लिए प्रख्यात है.

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