मूमल महेंद्र

एक थी मूमल – मरू देस की, आज के जैसलमेर के समीप बसे लोदूरवा गाँव की; चतुर, सुजान, सुनहरी-रुपहली कन्या। एक था महेंद्र राणों- आज के पाकिस्तान के सिंध प्रांत का; साहसी, चतुर, बांका, छैल-छबीला नवयुवक। दोनों मे प्रेम हुआ कोई हज़ार बरस से पहले।

हज़ार बरसों मे लाखों बवंडर उठे रेत के, टीले बन बैठे अतीत पर, किन्तु मूमल महेंद्र के अतीत पर न जम पाये। रेत पर कोई पदचिन्ह रहते नहीं, किन्तु प्रीत तो देह से आरंभ होकर देहातीत होती है। देहातीत को भला क्या बंधन? राजस्थान मे आज भी गाया जाता है मूमल के सौंदर्य को बखान करता लोकगीत- मूमल- राजस्थानी मे । सिंध मे गाया जाता है – मूमल महेंद्र राणों की प्रेम कथा का प्रेम गीत- मूमल राणों- सिंधी मे।

बीते जीवन मे दो सर्दियाँ जैसलमर मे बिताई है हमने । जब पहली बार लोदूरवा गये थे तो जैन मंदिर प्रमुख आकर्षण था लेकिन ये भी ज्ञात था कि मूमल लोदूरवा की थी। मीलों को नाप लेना ही तो यात्रा नहीं होती – वह तो यात्रा का स्थूल रूप है, देह है। किन्तु उसी स्थूल के नीचे तरंगित होते हैं उस यात्रा के सूक्ष्म रूप – इतिहास, पेड़-पोधे, जीव-जन्तु, खानपान, लोकमानस… इस सूक्ष्म यात्रा का कोई अंत नहीं।

ऐसी ही स्थूल यात्रा से मूमल राणों की प्रेम कहानी की सूक्ष्म यात्रा की थी कभी। ये यात्रा राजस्थान के लोकगीत से आरंभ होकर बीकानेर पहुंची थी अल्लाह जिलाई बाई के झरोखे तक। नवयौवना हो कर वहाँ से चली तो प्रेम के ऊंट पर सवार हो सिंध के अमरकोट तक पहुंची राणों के दर। प्रेमातुर नवयुगल बन कर वहाँ से कथा आगे बढ़ी तो सिंधी लोकगीतों में मूमल-महेंद्र की प्रीत को जी गई, पी गई, रस-सिक्त हो गई। अब यात्रा परिपक्व हुई और सिंधी सूफी संत शाह भिट्टाई के “शाह जो रिसालो ” मे जा कर कालातीत, देहातीत हो गई.

आइये, चलें आज इसी सूक्ष्म यात्रा पर …

राजस्थान का लोकगीत – मूमल

काली काली काजलिये री  रेख जी  
कोई भूरो रे बादल में चमके बिजली   
ढोले री ए मूमल हालो नी रिझालु ढोले ने. 
(म्हारी माढेची ए मूमल, हाले नी अमराणे देस । मेरी मांढ देश की मूमल, आओ मेरे साथ अमरकोट चलो ।)

शीश तो मूमल रो ढोला बादलियों नारेल को, 
कोई चोटी तो मूमल की बासत नाग ज्यूँ , 
रायां री ए मूमल हाँ जी ए, जुग जीवो ए मूमल हाँ जी ए मूमल हालो रिझालु ढोले ने 
(मूमल का शीश नारियल के समान है, तो उसकी चोटी बासत नाग के समान काली और लम्बी है. )  
लिलवट तो मूमल को ढोला अङ्गलके रे चार ज्यूँ , 
कोई भुवां तो मूमल की मृग लोचना,
जग जीवो ए मूमल हेलो नई रिझालु ढोले ने 
(मूमल का ललाट चार अंगुल जितना उन्नत है तो उस पर उसकी भंवें मृग की आँख के समान है ) 
नाक तो मूमल रो ढोला सुवा केरी चांच ज्यूँ , 
कोई आंख्या तो मूमल री रतन नाक्या  
(नाक मूमल की शुक की चोंच के समान है, और आँखें तो यूँ  है मानों मुखड़े पर रत्न जड़ें हों  
पेट तो मूमल रो ढोला पिपलिये रे पान ज्यूँ , 
कोई हिवड़ो तो मूमल रो सांचे ढ़ालियों  राया री मूमल। ....
(मूमल का पेट पीपल के पत्ते के सद्रश्य है अर्थात पीपल के पात के समान सुगठित और संकरा है, तो मूमल का वक्ष जैसे शिल्पी के सांचे में ढला हो) 
बांह तो मूमल री ढोला चंपा केरी डाल ज्यूँ ,
कोई केसर झरनी मूमल री कलाइयां, रायं री ए मूमल। .... 
(चम्पे की लचीली डाल के सदृश्य मूमल की बाहें हैं, उसकी कलाइयाँ तो जैसे केसर
के अति कोमल तन्तु के सदृश्य है   
पाँय तो मूमल रा ढोला चांदी के रे धाप/थाप ज्यूँ , 
कोई एड़याँ  तो मूमल की हिंगलू ढ़ालियो  ...
(मूमल के पाँव चाँदी के थाम के सामान हैं तो उसकी एडियाँ इतनो कोमल हैं की जैसे हिंगलू रंग से ढली हों. हिंगलू खनिज पत्थर से प्राप्त एक प्रकार का लाल रंग है जो लाल रंग में सबसे सुन्दर माना जाता है) 

नायिका के अप्रतिम सौंदर्य का ऐसा नख -शिख वर्णन, किन्तु कहीं भी अमर्यादित या प्रत्यक्ष शब्दों का प्रयोग नहीं !! लोकजगत ने कैसे तो अद्भुत गीत रचे हैं. उस पर अल्लाह जिलाई बाई की गायकी … नायिका के सौंदर्य से भी सुन्दर, देह की सधी हुई रचना से भी अधिक सधी हुई, मिश्री से मीठी, प्राणों की गहराई से निकल कर कंठ में विराजी सरस्वती से आशीर्वाद पाकर नाद का रूप पाती हुई…..

आज भी उनका गाई “मूमल” सुनते हुए यों प्रतीत होता है मानों रजवाड़ी झरोखों से छनकर आती हुई चांदनी में , बीकानेर के दरबार में,बारादरी में सजी सभा में सभी राव- उमराव चुप्प से बैठे हैं, और बाई जी के सुर श्रोताओं के कानों से होकर, रसपगे नयनों से मूमल को वहां जीवंत कर रहे हैं. आलयों में रखे दीपक की लौ कंपना भूल कर, एकात्म स्थिर हो गई है. राजमहल की महिलाओं के गोटापत्ती जड़े पोशाक और ओढ़नी मूमल के सौंदर्य से जगमग हो रहे हैं तो पीढ़ियों से युद्ध से कठोर हुए ह्रदय भी बाई जी के सुरों से भीग रहे हैं.

ये सौंदर्य गीत सुनते हुए अवश्य ही सिंध प्रान्त से राणा महेंद्र की आत्मा अपने सजे और प्रशिक्षित ऊंट पर इन्ही स्वरों का पीछा करते हुए, अपनी मूमल से मिलने चली आती होगी। सभा में उपस्थित सभी श्रोताओं का मन भी जा पहुँचता जैसलमेर के लोदुर्वा गांव में मूमल की मेड़ी पर. आज जैसलमर एक रेगिस्तान है लेकिन मूमल राणों के समय वहाँ, लोदूरवा गाँव से काक नदी बहती थी जिसके तट पर मूमल का महल था।

अल्लाह जिलाई बाई बीकानेर में जन्मी। बचपन मे ही उन्होने उस्ताद हुसैन बख्श से गायकी सीखी। फिर बहुत छोटी उम्र से ही वो बीकानेर के राजा गंगा सिंह के दरबार में प्रस्तुति देने लगीं। मांड गायकी की सिरमौर बनी। उनके गाये ‘केसरिया बालम’ , पनिहारी, मूमल, गोरबन्ध इत्यादि अनेक लोकगीत हैं जिसका कोई सानी नहीं।

कंठ की धव्नि में केवल सुर हों तो वह जैसे बस देह भर का सौंदर्य । जब उन सुरों मे भावों की गहराई भी हो तो जैसे चैतन्य आत्मा। तब जो गान है वह प्रभु की देहरी पर रखा माटी का वह दीप है जो भक्त और भगवान के बीच की प्रीत को दीप्त करता है। अल्लाह जिलाई बाई जी के गायन से इस लोकगीत में मूमल का रूप भी कुछ ऐसे ही दीप्त होता है ।

लेकिन अल्लाह जिलाई जी की सुर में कसी मीठी कंठ ध्वनि से साकार होता मूमल का सुनहरा रूप भी तो मूमल की प्रीत की दर्द भरी कहानी को भूलने नहीं दे पाता।

सिंध का लोकगीत – मूमल राणों

ये गीत तो यहाँ राजस्थान के मरू प्रान्त में रचा बसा है किन्तु जैसलमेर के लोदुर्वा गांव में बसी मूमल की प्रीत रेत के धोरों को सुनहरा करते हुए, हवा के थपेड़ों से असीम मरू विस्तार पा गई है.

राजस्थान के इस लोक गीत के शब्दों में आज भी अगर मूमल का सौंदर्य दीप्त है तो सिंध मे गाये जाने वाले मूमल-राणों (मूमल और उसके प्रेमी महेंद्र राणों) के गीत मे प्रीत का दर्द आज भी वैसे ही जीवित है जैसे पंजाब मे गाई जाने वाली हीर मे।

सिंध प्रांत मे गाये जाने वाला, मूमल राणों का एक बहुत ही लोकप्रिय गीत, जो कोक स्टुडियो पर सुना जा सकता है उसकी लिरिक्स दिये दे रही हूँ। मुझे सिंधी नहीं आती अतः अगर इसमे गलती है तो कृपया सुधार दें। लिरिक्स वही यू ट्यूब से ही लिखी है।

वेठी नित निहारा राणा तुंझी  राह ॥ I have been sitting here waiting for you forever  
मोटाए मागन ते अल्ला हो छला आणि दोएबे अल्ला     God knows where you are and only God will bring you back
 सोढ़ा तो घर साह हो राणा घणा हिन राज मे  I am devoted only to you, even though there are many others around
 ओ मियां अल्ला ओ अला राणे वनों  रात नव निया पाइयो   Tonight, Rana has sent a new message 
लतीफ व्हेवे दातार कन दात   lateef chaway datar kanan daat (Shah) Latif is blessed with the ability to feel 
कान पुच्छे थो जात   Then why do you inquire about my creed 
आया से अग्गे वया  Whatever comes from the beloved is acceptable
आहों अव्हा जी अहियाँ केड़ी पूछो था जात मियां I am yours Then why do you ask me about my creed  
मूखे वेठे मुखे वेठे विरहा लंगे व्या     Years have gone by while I sit here waiting for you 
राणल तो बिन रात  Ranal without you the night 
हालो हालो काक तड़े जित्ते घडजे नीह (नेह ) Let’s go to Kak (the palace) The place where the story of our love is taking shape
 न का रात न दीन्ह सब का पसे पीरिय अखे  There are no nights or days anymore   The place where all will be united with their beloved forever
 हालो हालो काक तड़े जित्ते नीह पचार  Let’s go to Kak (the palace)  Where love blossoms
 काने का भी तवार , सब का पसे पीरिय अखे   And there’s no other conversation but, of love  Where one is united with one’s beloved 
 हलो हलो काक तड़े जीत नीह उच्छल, नका झल न पल सब का पसे पीरिय  Let’s go to Kak (the palace)  Where love flows; Where no one is prevented, all can be united with the beloved 
जीवे जीवे तूँ सदा जीवे तूँ जीवे जीवे तूँ सदा जीवे तूँ हक़ हक़ सदा जीवे तूँ  May you live long, may you live forever   May you live forever, may you live forever  May you live forever, may you live forever 
आओ राणा रहो रात ,तुह जे चांगे खे  चन्दन चारया आओ राणा रहो रात  Come Rana spend the night . Here even your Camel will graze on sandalwood.
 लालों लाल ओ लतीफ़ चवे मियां सिंध जो शाह लतीफ़ जिये लतीफ़  Latif says ‘Lalon laal’  The Shah of Sindh ‘Latif’, live long Latif 
हो छला सिंधरी वसे लतीफ जिये लतीफ  We hope Sindh will be showered with blessings   
दातर दी दम दात तुहंजे चांगे खे चन्दन चरया   God will give me the wisdom to come here  Here even your Camel will graze on sandalwood
वेठी नित निहारा
Dhola Maru

एक और सुंदर सिन्धी लोकगीत, जो वाई गायन शैली में है जिसे आप यूट्यूब पर सुन सकते हैं, उसकी लीरिक्स भी वहीं लिखी आती है साथ में –

सूफी संत शाह भिट्टाई की ” शाह जो रिसालो” में मूमल- महेंद्र

मूमल महेंद्र की प्रीत उड़ते उड़ते पहली बार साहित्य के पन्नों में अंकित हुई सिंध के सूफी फ़क़ीर शाह अब्दुल लतीफ़ भिट्टाई के काव्य संग्रह “शाह जो रिसालो ” में, मूमल-राणों के नाम से .

“शाह जो रिसालो” सिंधी साहित्य की अमूल्य निधि है, जिसमे सिंधी सूफी फ़क़ीर अब्दुल लतीफ़ भिट्टाई द्वारा रचित काव्य संकलित है. आज के सिंध प्रान्त, पाकिस्तान के भीत शाह गांव में शाह का जन्म सन 1689 में हुआ था. किन्तु इसका अर्थ ये कदापि नहीं कि ये कथा उन्होंने चलाई। उनके इस काव्य संग्रह में आठ प्रेम कहानिया रस-रचित हैं जिनमे मारुई , मूमल, सस्सी, सादिया, नूरी, सोहनी, सरथ और लैला नायिका हैं.

सूफी परंपरा में कई बार सूफी भक्त और भगवान् के प्रेम और विरह की तड़फ को नायक नायिका के प्रेम से रुपित करता हैं. इस काव्य संग्रह में भी इन सभी प्रेम कहानियों द्वारा जीव का परमात्मा से बिछुड़ने का दुःख, मिलने की आस, सदा अंग संग रहने की व्याकुलता, संसार के सभी लोक-नियम छोड़ कर उसी में लय हो जाने की चिर प्रतीक्षा को ही निरुपित किया है शाह जी ने.

व्यक्तिगत रूप से, मुझमे ये कमी है कि इन प्रेम कहानियों से मुझमे भक्ति भाव नहीं जग पाता, वैसे ही जैसे फिल्मी गानों की तर्ज़ पर बने भजनो में सदा फिल्मी गीत ही याद आता है।

मूमल-महेंद्र राणों की प्रेम कहानी की ऐतिहासिकता

मूमल- महेंद्र राणो की प्रेम कथा शाह भिटाई से भी बहुत पहले से रही होगी, ऐसा शाह जी की कविता और कुछ ऐतिहासिक प्रमाणों से जाना जा सकता है. शाह अपने काव्य में मूमल को लोदरवा की निवासी बतलाते हैं, जहाँ काक नदी के किनारे काक महल (जिसे आज मूमल की मेढ़ी के नाम से जानते हैं ) में मूमल अपनी बहनों के साथ रहती थी.

लोदरवा भाटी वंश के राजपूतों की राजधानी थी. इतिहास के अनुसार नौवीं सदी में देवराज नामक भाटी राजपूत ने लोदरवा को जीता था. क्यूंकि ये सिंध को जाने वाले व्यापार मार्ग पर था, अतः लोदरवा एक संपन्न नगर था.

सन 1056 में भाटी राव जैसल ने अपने भतीजे भोजदेव से लोदुर्वा का राज्य छीन लिया। भोजदेव के विश्वासपात्रों द्वारा हानि किये जाने की आशंका और एक साधु की भविष्यवाणी से राव जैसल ने जैसलमेर की पहाड़ी पर अपनी राजधानी बसाने का निर्णय लिया और किले का निर्माण आरम्भ किया। (Annals and Antiquities of Rajasthan – James Tod ).

उसके बाद से लोदुर्वा का प्रभाव कम होता चला गया। निश्चित ही काक नदी के किनारे पर बना काक महल अवश्य तब रहा होगा जब लोदुर्वा अपने संपन्न समयकाल में था. जब एक बार राजधानी जैसलमेर पर स्थानांतरित हुई तो लोदुर्वा का क्रमशः सिमटता जाना और संपन्न परिवारों का जैसलमेर में बस जाना स्वाभाविक सी बात है.

आज काक नदी सिर्फ एक सूख चुकी पाट है. और लोदुर्वा एक भूला बिसरा गांव जो अपने जैन मंदिर के लिए ख्यात है. हाँ, ASI द्वारा किये उत्खनन से लोदुर्वा का पुरातत्व प्रमाण अवश्य मिला है जो इसके संपन्न नगर होने को प्रमाणित करता है.

मूमल-महेंद्र की प्रेम कथा

चलिए लौटें पुनः मूमल – महेंद्र की प्रेम कथा पर. कथा के कई रूप प्रचलित हैं लेकिन मोटे तौर पर कथा कुछ यूँ है- वर्तमान के पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में, हमीर सुमरू उमरकोट का राजा हुआ करता था. राणो महेंद्र, सिंहारो धामचंनी और दोंरो भट्यानी हमीर सुमरू के मंत्री थे. ये चारों साथ मिल कर शिकार खेला करते थे।

ऐसे ही एक बार शिकार खेलते हुए एक बार वे एक अनजान व्यक्ति से मिले, जिसने उन्हें मूमल के अप्रतिम सौन्दर्य के बारे में बताया. उसने अपने आपको कश्मीर के निकट किसी स्थान का राजकुमार बताया जो मूमल के सौन्दर्य -आख्यान सुन कर उसे पाने की आस में दूर रेतीले मांड देश तक खिंचा चला आया था.

मूमल लोदुरवा में काक नदी के किनारे बने काक महल में अपनी सात बहनों के साथ रहती थी. मूमल कि बहन सोमल अत्यधिक चतुर थी तो उसकी एक और बहन नतिर बहुत ही चालाक। कहते हैं कि मूमल से मिलने के लिए अनेकों जटिल पहेलियों को बूझना पड़ता था। इतना ही नहीं, काक महल भी इंद्रप्रस्थ के महल के समान ही कहीं आभासी तो कहीं सत्य था। इन पहेलियों और महल के आभासी स्थापत्य मे वह युवक बुरी तरह पराजित हुआ था।

उसकी दास्तान सुन कर इन चारों साथियों के मन मे उत्सुकता जगना निश्चित ही था। वे भी चले मूमल की मेढ़ी पर। विधि का विधान कि महेंद्र राणों भी बहुत ही चतुर और निडर, साहसी व्यक्तित्व का धनी था। उसने सभी बाधाओं को पार किया और मूमल के हृदय मे बस गया । मूमल और महेंद्र उसके बाद कई बार मिलते रहे और प्रेम परवान चढ़ता गया ।

राजा हमीर को कहीं ये बात सालती रही कि मूमल जैसी स्त्री को वो नहीं जीत पाया। उसने उनकी मुलाकाते रोकने के लिए महेंद्र को राजकार्य मे उलझाए रखा। लेकिन प्रेम जब गहरा हो जाये तो किसी भी बंधन मे बंध नहीं पाता। (सूफी इसे संसार के सभी आकर्षणों और बंधनों मे फँसकर भी उस प्यारे से मिलने की तड़फ को निरूपित करते हैं। )

उसी तड़फ से विवश हो महेंद्र दिन भर के राजकार्य समाप्त कर सांझ ढले उमेरकोट से अपने चहेते और प्रशिक्षित ऊंट पर सवार हो लोदूरवा के लिए चल पड़ता। ठीक वैसे ही जैसे अंतरयात्रा पर निकला व्यक्ति संसार के काम काज करते हुए हर पल उसकी क्षीण याद मे रहता है और दिन पूर्ण होते ही प्रिय से मिलन की यात्रा पर प्राणपण से निकल रहता है।

मरु देस में तारों की रूपहली छटा अधिक ही गहन होती है। पवन के गीले हृदय को कंटीले झाड़ अपने में सोंख के सहेज कर रखते हैं जैसे सत्संग के वचनों को मुमुक्षु। पवन के इस शुष्क-सागर के ऊपर आसमान में कोई नमी का फाहा बिन ऋतु कभी भूले बिसरे भी नहीं फटकता। ऐसे निरावरण सकल विस्तार के उस पार से रात का रूप जगमगाता।

नीचे ठंडी सुहाती रेत तो ऊपर से फुहार बरसाती शीतल चंद्र-प्रीत। दिन भर भास्कर की तपन में झुलसी देह के लिये मानों पावस सी फुहार। तिस पर प्रिय से मिलने की उमंग। मूमल मेढ़ी के झरोखे में टिकटिकी बांधे राणों की राह देखती। क्षण क्षण मे असंख्य तारे उसकी आँखों मे झिलमिलाते। दूर हल्के से उजियाले में राणों के दौड़ते ऊंट से उड़ती रेत देख बवंडर सी उससे मिलने भागी जाती।

रवि के कदमों से दहकती रेत जैसे संसार, जो निशि की प्रीत से तुरंत ही शीतल हुई जाती है। ऐसे ही अंतरयात्रा पर निकला हृदय जो उस प्यारे की छाँव में आते ही शांत होता जाता है। राणों भी तारों छाई चांदन में मूमल से मिलता।

मिलन की मुस्कान के हार समीप आने पर गलबहियों के हार बन जाते। प्रीत कभी कंठ अवरुद्ध पाकर नैनों से बतियाती तो कभी वाणी का रूप लेती। बात पूरी नहीं हो पाती कि राणों के जाने की वेला हो जाती। यूं भी मिलन के क्षण कब पूरे लगते हैं भला ? जाते हुए राणों को आंसुओं के हार पहना कर विदा करती मूमल, तो राणों आश्वासन की वेणी पिरोता मूमल के लिये।

लंबी, कठिन यात्रा भी सार्थक होती है जो प्रिय से क्षण भर का मिलन ले आये। साधक के जीवन में भी तो अंतरयात्रा ऐसी ही होती है। रवि के जाने कितने ही फेरों के बाद कभी वो क्षण आता है जब भीतर के पट खुलते हैं और एक झलक दिखती है। बस उसी झलक की मिठास चित्त मे रह जाती है और बिछुड़ने पर विरह की अग्नि धधक उठती है। इसी विरह और मिलन में प्रीत गाढ़ी हुई जाती है।

राणों भी उस क्षणिक मिलन के बाद लौट आता। पुनः उमेरकोट राजा के समक्ष समय पर उपस्थित होता। एक बार हमीर ने उसकी ये हिमाकत पकड़ ली और उसे मूमल से कभी न मिलने का आदेश दिया। लेकिन फिर वही हुआ जो हमेशा होता आया। मीरा को भला कौन रोक पाया कान्हा से मिलने जाने को। सूफी शाह लतीफ भी यही कहते हैं -लेकिन सांसारिक प्रेम कहानी के द्वारा।

एक बार राणा महेंद्र समय से काक महल नहीं पहुँच पाया। मूमल की प्रतीक्षा विरह व्यथा मे बदल गई। उसने अपने हृदय से हार कर सोमल को राणा का भेष धरने को कहा। प्रीतम न सही लेकिन प्रीतम की कोई मुंदरी ही डूबते हृदय का आसरा बन जाती है। मूमल राणा का भेष धरे सोमल के अंग लग कर देर रात मे सो पाई।

देर रात जब राणों पहुंचा तो मूमल को किसी पुरुष के साथ सोता देख, मूमल से विमुख हो गया। प्रियतम का हृदय मे क्षण भर मे ही क्यूँ प्रेम के स्थान पर शंका से भर गया?

सूफी निरूपण करूँ तो भगवान की भक्ति-लहर जब आए और भक्त संसार मे लिप्त हो तो, लहर व्यथित हो उल्टे पाँव लौट जाती है। भक्त के संसार मे तो यह बात खरी और सत्य है, लेकिन सांसरिक प्रेम मे यही बात मुझे कभी भली नहीं लगती। इसीलिए व्यक्तिगत रूप से मैं कई बार ऐसी गहरी सूफी आध्यात्मिक कथाओं से भी भक्ति भाव मे नहीं आ पाती।

जाते वक्त राणों अपनी छड़ी वहीं भूल गया। या संभवतः जान बुझ कर छोड़ गया। जागने पर मूमल ने राणों की छड़ी देखी । और उसे राणों से ना मिल पाने की पीड़ा तो हुई ही, यह भी आशंका हुई कि कहीं राणों ने उसे गलत तो नहीं समझ लिया। मीरा बाई इसी भाव को ऐसे कहती हैं- ” मैं अभागन सूतल रही “।

कथा मे आगे मूमल ने कई दिन हृदय विदारक प्रतीक्षा और पीड़ा मे बिताए किन्तु महेंद्र राणों नहीं आया। हार कर मूमल ने पुरुष का भेष धरा और सिंध मे महेंद्र के समक्ष पहुंची। जब राणों को पता चला कि पुरुष के भेष मे मूमल है तो उसने मूमल को अपने से दूर कर दिया। मूमल ने बहुत विनती की, अपनी सफाई दी, उसे उस रात क्या हुआ ये बताया लेकिन राणों का दिल न पसीजा।

हार कर वो महेंद्र के यहाँ से निकली और अपने आपको आग के हवाले कर दिया। जब महेंद्र को यह बात पता चली तो वह भी उसी आग मे कूद गया और अपने प्राण त्याग दिये। सूफी ने निरूपण किया कि स्वयं को मिटा कर ही वह मिलता है। फिर कोई दूरी नहीं, कोई दुई नहीं।

दिल्ली से जैसलमर और वहाँ से लोदूरवा की यात्रा तो थी कदमों का माप । लोदूरवा के किसी टीले पर बैठे मूमल की याद आई । घर लौट कर बड़े जतन से ये मन-यात्रा की थी । बस लिखी आज कोई सोलह साल बाद!

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