- बृहदीश्वरा मंदिर, तंजावुर
दक्षिण भारत, जहाँ आज हम पग-पग पर प्राचीन मंदिरों का वैभव बिखरा हुआ देखते हैं, वस्तुतः पल्लव वंश द्वारा सातवी सदी में यहाँ पाषाण से निर्मित मंदिरों के साथ ही दक्षिण भारतीय शैली का प्राद्भव होता है. इसी शैली को उत्तरोत्तर भव्यता और परिष्करण मिला चोला वंश काल में. भारत के कुछ महान शासक-वंशों की सूची में चोला वंश का भी महत्वपूर्ण स्थान है. नवीँ से तेरहवीं सदी तक चले इस वंश ने दक्षिण भारत में स्थापत्य के नए आयाम तो जोड़े ही, अपने साम्राज्य को उत्तर में गंगा नदी से लेकर वर्तमान के इंडोनेशिया में श्रीविजय नगरी तक फैलाया।
चोला वंश के परम काल में कम से कम 300 पाषाण मंदिरों का निर्माण हुआ. राजराजा चोला इसके महानतम राजा हुए जिन्होंने तंजावुर में 1010 CE में बृहदीश्वरा मंदिर का निर्माण पूरा किया। इन्ही के पुत्र राजेंद्र चोला द्वारा निर्मित गंगाईकोंडाचोलपुरम का बृहदीश्वरा मंदिर (1035 CE ) और राजराजा II का बनवाया ऐरातेश्वर मंदिर( 1166 CE), इन तीनो मंदिरों को, जो भगवान् शिव को समर्पित हैं, सम्मिलित रूप से यूनेस्को हेरिटेज में “The Great Living Chola Temples” के नाम से जोड़ा गया है. Living अर्थात जहाँ निर्माण से लेकर आज तक पूजा-अर्चना होती रही है. तमिलनाडु में महाबलीपुरम के अलावा ये ही एक अन्य यूनेस्को हेरिटेज साइट है. ये पोस्ट सिर्फ तंजावुर के बृहदीश्वरा मंदिर पर है.
तंजावुर के बाद, कावेरी नदी डेल्टा बनाते हुए बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है. इस डेल्टा द्वारा सिंचित, तंजावुर से निचले भूभाग में, धान की उपज अतुल्य होने से यह घनी आबादी वाला क्षेत्र रहा. तंजावुर 850 ईस्वी से ही चोला राजाओं की भूमि रहा किन्तु राजराजा द्वारा निर्मित इस विशालकाय बृहदीश्वर मंदिर के साथ ही ये चोला वंश की मुख्य कर्मभूमि बना. 22 अप्रेल 1010 को राजराजा ने तंजावुर में स्वयं द्वारा बनवाये शिव मंदिर पर स्वर्ण कलश चढ़ा कर इस मंदिर में विधिवत पूजा-अर्चना को आरम्भ किया, जिसका उल्लेख इसी मंदिर में खुदे inscriptions में मिलता है. Inscriptions के अनुसार सिर्फ सात वर्षों में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हो गया.
राजराजा अर्थात राजाओं का राजा। राजराजा का मूल नाम अरुमौलिवर्मन था. इसी नाम पर इस मंदिर का नाम रखा गया ‘राजराजेश्वर’ अर्थात राजराजा (चोला) के ईश्वर।
यहाँ मंदिर के अधिष्ठातक देव शिव हैं जिनका चोला समय का नाम है ‘दक्षिणमेरुवितंकार’ अर्थात दक्षिण मेरु के ईश क्योंकि दक्षिण में स्थित इस मंदिर के विमान ( गर्भ-गृह के ऊपर बना tower ) की अतुलनीय ऊंचाई इसे मेरु पर्वत जैसा स्थान देती है। सोलहवीं सदी में इन्हे ‘पेरुवुडैयार’ कहा गया जिसका अर्थ है ‘the great lord’; इसी दौरान तमिलनाडु में संस्कृत का प्रभाव बढ़ा और यह मंदिर बृहदीश्वरा (the great lord) के नाम से जाना जाने लगा.
Timeline of Early Structural Temples in Tamilnadu
तमिलनाडु में पाषाण मंदिर (structural temples ) का निर्माण छठी-सातवीं ईस्वी सदी से ही आरम्भ हो गया था जिनकी एक मोटी समयरेखा कुछ इस प्रकार है-
पल्लव वंश
राजसिम्हा ग्रुप (700 -800 CE)- जिसमे प्रमुख है मम्मलपुरम का शोर टेम्पल, और कांचीपुरम के कैलानाथ और वैलूनथपेरुमल मंदिर जिसके विमान चार-तलीय हैं. इसके बाद भी पल्लव राजाओं ने मंदिर बनवाये किन्तु वे इन मंदिरों से छोटे और कमतर ही रहे. इसकी वजह शायद पल्लव काल का प्रभुत्व कम होते जाना रहा होगा।
चोला वंश
आरम्भिक चोला मंदिर- इस काल के अधिकांश मंदिर पुडुकोट्टई में स्थित है जिसमे प्रमुख हैं विजयलाचोलेश्वर मंदिर (850 -871 CE )- तीन तलीय विमान और उसके बाद बना कोरंगनाथा मंदिर ( 907 -955 CE)- एक मंज़िला भूमि और द्वि-तलीय विमान
इनमे पल्लव वंश का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है, किन्तु चोला स्थापत्य भी अब अपनी पहचान बना लेता है.
राजराजा (985 -1014 ) और राजेंद्र चोला काल (1014 -1044 )
बृहदीश्वर मंदिर (1010 CE )- तेरह तलीय विमान
गंगईकोंडाचोलपुरम बृहदीश्वर मंदिर ( 1035 CE )- नौ तलीय विमान
प्रस्तर निर्मित मंदिर निर्माण कला को दक्षिण भारत में चरम सीमा पर पहुँचाया राजराजा चोला ने। उनके द्वारा निर्मित तंजावुर का बृहदीश्वर मंदिर का विमान तेरह तलों का है. सिर्फ दो दशक के बाद ,इन्ही के पुत्र राजेंद्र चोला द्वारा गंगईकोंडाचोलपुरम में निर्मित ब्रहदीस्वरा मंदिर का विमान नौ तल का है.
इसके बाद भी करीब सौ वर्षों तक चोलाओं ने अनेक मंदिर बनवाये जिनमे राजराजा II का बनाया ऐरातेश्वर मंदिर (1166 CE)-
और कुलोत्तुङ्गगा II द्वारा बनवाया कंपहरेश्वर मंदिर (1176 CE)- एक मंज़िला भूमि और सात तलीय विमान प्रमुख हैं और बहुत सुन्दर भी हैं, लेकिन भव्यता में ये तंजावुर और गंगईकोंडा से कम ही रहे.
पंड्या काल
विशाल गोपुरम बनाने का प्रचलन पंड्या काल में शुरू हुआ जिसमे प्रमुख है चिदंबरम स्थिर मंदिर का गोपुरम।
इस समय रेखा से स्पष्ट है कि तंजावुर का राजराजेश्वर मंदिर दक्षिण भारत में हिन्दू मंदिरों के स्थापत्य कला-इतिहास में एक नया और निर्णायक मोड़ है. इससे लगभग 150 वर्ष पूर्व तक बने मंदिरों का विमान कभी इसकी आधी ऊंचाई भी नहीं पार कर पाया।
ज्ञात रहे कि :
पुरी के वर्तमान जगन्नाथ मंदिर का निर्माण हुआ 12वीं CE में, कोणार्क का सूर्य मंदिर बना 13वीं CE में, आज जो हम मदुरै का मंदिर देखते है, वह पुनर्निर्मित हुआ था 15वीं -16वीं CE में, मलिक काफ़ूर के इसको 14 वीं सदी में ध्वस्त करने के बाद,
हम्पी, कर्नाटक के विरुपाक्ष मंदिर का निर्माण काल लम्बा है- 7वीं सदी में एक छोटे से देवालय के रूप में शुरू हुआ ये मंदिर कई बदलाव से गुजरा होयसाला, चालुक्य और फिर अंत में विजयनगर राज्यवंश के दौरान। आज जो रूप हम देखते है वह मुख्यतः विजयनगर शासकों की देन है.
तुलना का अर्थ ये कदापि नहीं है कि ये मंदिर अन्य मंदिरों से अच्छा है या अन्य कम महत्वपूर्ण है. समय-रेखा जानने से मंदिर निर्माण का क्रमिक विकास और महत्वपूर्ण , निर्णायक milestone तथा कला-इतिहास में उसका सन्दर्भ, महत्व और योगदान ज्ञात होता है.
बृहदीस्वरा मंदिर की मुख्य धरोहर है- इसका बेजोड़ स्थापत्य, चोला काल की पेंटिंग, भगवान् शिव की विभिन्न शिल्प और उनकी iconography, प्रचुर inscription.
Note – ये पोस्ट दक्षिण भारत के द्रविड़ शैली के मंदिर के architecture पर नहीं है, अतः मंदिर के स्थापत्य भाग में इस मंदिर के कुछ ही विशेष फीचर बताये गए है.
Layout and Architecture of Brihadisvara Temple
दक्षिण के मंदिरों में विमान (tower) का एक रोचक इतिहास है. तंजावुर के बृहदीश्वरा से पहले बने मंदिरों का विमान ऊंचाई में मध्यम रहा. राजजचोला और फिर राजेंद्र चोला के बने मंदिरों में विमान की ऊंचाई अधिकतम रही. फिर उसके बाद पुनः विमान की ऊंचाई कम होती गई, लेकिन गोपुरम की ऊंचाई बढ़ती ही चली गई. लेकिन इसका अर्थ ये नहीं कि इससे विमान का मंदिर में महत्व कम हो गया. गोपुरम पर दर्शित शिल्प किसी नियम से नहीं बंधे हैं अतः वे दैनिक जीवन, मंदिर के मूल देव से भिन्न देवी-देवता, मिथुन मूर्तियां सभी दर्शाते हैं. लेकिन विमान पर मूल देव और उनसे जुड़े देव ही निरूपित किये जाते हैं. विमान वास्तविक रूप में तो भीतर स्थित देव का बाह्य निरूपण है जो कि भीतर के अधिष्ठित देव की महिमा को व्यक्त करता है. क्या ये ऐसा नहीं कि जैसे मनुष्य का शरीर तो उस आत्मा के निरूपण के लिए है जो उसके भीतर सर्वदा विराजमान है. गोपुरम जितना भी भव्य हो, उसका ये महत्व नहीं है.
मंदिर के विमान की एक और परिकल्पना मुझे रुचती है. इसके अनुसार विमान एक उर्ध्व-मूल यानि उलटे वृक्ष के सामान है जिसकी मूल तो उसका कलश या शिखर बिंदु है और उसकी शाखाए नीचे फैलती चली जाती है. कामनाओं की शाख हमें धरती पर रखती है और अधिकांशतः हम मूल को भूल ही जाते हैं. जैसे -जैसे ये कामनाओं की शाखाएँ कम होती जाती है, हमारी चेतना ऊपर उठती जाती है. जब ये कामनाये एक बिंदु के समान अपना फैलाव/ अस्तित्व खो देती है, तब मनुष्य शिखर सोपान पर होता है या भगवत्ता को उपलब्ध होता है.
विशाल आयताकार आँगन में बने इस मंदिर के आयाम हैं 120 m (north-south) X 240 m (east-west) जो कि एक सुसंयोजित 2:1 द्वि-वर्ग की ज्यामिति बनाते हैं. पूर्व-पश्चिम धुरी पर बने इस मंदिर का विमान (गर्भ गृह के ऊपर उठा tower) लगभग 60 मीटर की ऊंचाई लिए है.
इस विशाल मंदिर में मुख्यतः ग्रेनाइट पत्थरों का उपयोग हुआ है जिन्हे बिना किसी mortar के जोड़ा गया है. इसके स्थापत्य और शिल्प से भी अनूठी बात ये है कि इस क्षेत्र में ये पत्थर तिरुचिरापल्ली जो कि यहाँ से 45 km दूर है, से यहाँ लाया गया. नाव द्वारा या थल से, इतने पत्थरों को यहाँ तक लाना अपने आप में एक महत्त कार्य था. एक अनुमान के अनुसार इस मंदिर में 130000 टन पत्थर लगा जो कि उस समय तक बने सामान्य मंदिरों से लगभग 40 गुना अधिक था. 985 से 1044 ईस्वी के बीच राजराजा और उनके पुत्र राजेंद्र ने करीब 80 मंदिरों का निर्माण किया जिसमे तंजावुर और गंगाईकोंडाचोलापुरम के मंदिर में ही लगभग अन्य 80 सामान्य मंदिरों जितना पत्थर लगा.
तंजावुर के इस मंदिर का विमान एक विशाल वर्गाकार प्लान पर बना है, जिसमे गर्भगृह के चारों और double दीवार है, जिसके बीच में एक अन्तरीय प्रदक्षिणा-पथ है. यह विमान पूर्णतः द्रविड़ शैली के अनुसार stepped pyramid यानि उत्तरोत्तर या आरोहि रूप से क्रमशः संकीर्ण होते जाते तलों से बना है. इसी समयखण्ड में उत्तर भारत में बने मंदिर नगारा शैली के हैं. तेरह तलों के इस विमान को एक ठोस द्वि-तलीय दीवार जिसे ‘भूमि’ कहते हैं, पर उठाया गया है. विमान के शिखर पर स्थित विशाल अष्टकोणीय शिखर जो कि ASI के अनुसार आठ शिलाओं से बना है (monolith नहीं है, जैसा कि अधिकांश ब्लॉग लिखते हैं), का अनुमानित वजन लगभग 80 टन है. इस विमान के शिखर पर 1010 में जब राजराजा चोला द्वारा स्तूपी/कलश चढ़ाई गई तब इसका पारम्परिक रूप से मंदिर के रूप में जीवन शुरू हुआ.
सम्पूर्ण विमान बिना किसी जोड़ के, corbelling तकनीक से इतनी ऊंचाई तक उठाया गया है. अगर आप गर्भ-गृह में खड़े होकर ऊपर देखें तो ये विमान ऊपर तक अंदर से खोखला है. इसी मंदिर में पहली बार एक नए architectural-iconographical पिलास्टर जिसे ‘कुम्भ-पंजारा’ कहा गया, का भूमि यानि मंदिर की दीवार में प्रयोग हुआ जिसे बाद में भी कई मंदिरों में अपनाया गया.
इस मंदिर परिसर में अनेक छोटे उप-मंदिर हैं, लेकिन मंदिर के मूल रूप और समय पर केवल मुख्य मंदिर और उसके उत्तर में चंदेश्वर का पूज्य-स्थल था. वस्तुतः इस मंदिर की विशालता में इसके खुले, विस्तृत प्रांगण का भी योगदान है.
मंदिर का layout –
तंजावुर चोला वंश के बाद पंड्या वंश के हाथ में रहा और उसके बाद मल्लिक काफूर के आक्रमण के बाद मची उथल-पुथल से निकल कर विजयनगर वंश का भाग बना. विजयनगर शासन में ही सेवप्पा नायक ने विजयनगर से स्वंत्रता घोषित की हालाँकि वे उसके बाद भी युद्धों में विजयनगर के ही समर्थक रहे. उसके बाद तंजावुर 17 वीं सदी में मराठा शासकों के हाथ में रहा. इतिहास में इस पोस्ट को ले जाने का कोई मंतव्य नहीं है लेकिन ये इस लिए लिखा है ताकि थंजावुर के मंदिर में इन शासन के समय खण्डों का प्रभाव हम ठीक से देख पाए.
मंदिर में आज जिस द्वार से हम प्रवेश करते हैं वह ईंट और प्लास्टर से मराठा शासकों द्वारा बनवाया गया था. यह द्वार मंदिर का सबसे बाहरी परकोटे में बना द्वार है. कुछ ही दूर चलने पर अब हम राजराजा द्वारा बने केरालान्तकम गोपुरम पर पहुँचते है. चोला काल में ये स्वतंत्र रूप से खड़ा द्वार था. आज जो परकोटा इस गोपुरम के साथ है, वह नायकों ने बनवाया था. केरालान्तकम गोपुरम नामकरण राजराजा की केरल के चेराओं पर विजय को अभिव्यक्ति देता है. इसके बाद हम राजराजन थिरुवसाल गोपुरम पर पहुंचते हैं जहा द्वार के दोनों ओर बने विशाल और भव्य द्वारपाल की सुरक्षा जाँच के बाद हम मंदिर प्रांगण में प्रवेश करते हैं. इस गोपुरम पर अनेक पट्ट-लेख देखना न भूले। चाहे हम न पढ़ पाए, लेकिन मंदिर की प्राचीनता और प्रमाणिकता प्रस्तुत करने के लिए अकाट्य साक्ष्य हैं ये.
प्रांगण में सर्वप्रथम हमें नंदी मंडप में शिव जी की ओर मुख किये हुए, सर्वदा सेवा को तत्पर, विशालकाय एकशिला नंदी जी के दर्शन होते हैं. मंडप की छत पर पेंटिंग मराठा काल की हैं. इस काल की पेंटिंग में चटकीले रंगों का उपयोग है जबकि चोला काल की पेंटिंग में earthen colors का उपयोग हुआ है.
मंदिर का भीतरी परकोटा जिसे cloister मंडप कहते हैं, मंदिर का आरम्भिक परकोटा रहा. इसी में आठों दिशाओं के दिक्पाल के उप-मंदिर आठों दिशाओं में स्थित हैं.
नंदी मंडप से ही हम मुख्य मंदिर और उसके आसमान में ऊँचे उठे विमान को निहार लेते है. उस तक जाने से पहले धवजा स्तम्भ, बालिपीठ और मंदिर के अधिष्टातक देव के वाहन पर अपनी सेवा अर्पित करे. तमिल मंदिरों में ध्वजस्तंभ, बलिपीठ और मंदिर के मुख्य देव का वाहन आपको अवश्य मिलेगा। बलिपीठ बलि देने के लिए नहीं अपितु हल्दी,चावल देव को चढाने के लिए बनाया जाता है.
चोला समय में मुख्य मंदिर में प्रवेश पार्श्व (lateral) सीढ़ियों से ही था जिसके द्वारा मुखमंडप में प्रवेश होता था. आज जो मुख मंडप के सामने हम सीढियाँ देखते हैं वे नायक काल में बनी हैं तथा मुखमंडप भी नायक काल में पुनः बनाया गया था. नायक काल के मंडप से होते हुए हम चोला काल के महा मंडप में पहुँचते हैं. दोनों ही मंडपों के स्तम्भ आप को स्वतः उनके निर्माण काल की गवाही देते हैं. चोला काल के स्तम्भ चौकोर और सादे है.
चोला काल के महामंडप से हम अर्ध-मंडप में पहुँचते है. इस अर्धमंडप में सीधे ही इसके दोनों पार्श्व में बनी सीढ़ियों से भी पहुँच सकते हैं, जो कि चोला स्थापत्य की पहचान है. अर्थात अर्धमंडप में या तो आप महामंडप से होकर पहुंचे या अर्धमंडप के दोनों ओर की सीढ़ियों से सीधे ही इसमें प्रवेश करें। इन दोनों पार्श्व सीढ़ियों के दोनों ओर तथा अर्धमंडप से गर्भगृह में जाते द्वार के दोनों ओर भी विशालकाय द्वारपाल आप पर पैनी नज़र रखते हैं. ये विशालकाय द्वारपाल भी चोला समय के मंदिरों का एक प्रमुख फीचर है.
गर्भ-गृह में भीमकाय लिंग जिसकी ऊंचाई 3.5 मीटर से अधिक है, को देख कर लगता है की पहले इसे प्रतिष्ठित किया गया होगा और फिर गर्भ-गृह और उसके ऊपर का विमान बना होगा। गर्भ-गृह में प्रवेश वर्जित है तथा प्रदक्षिणा-पथ भी अब ASI द्वारा वर्जित है.
Inscriptions at Brahdeeswara Temple
एक बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि इस मंदिर की ये रही कि मंदिर के आधार तल जिसे अधिष्ठान कहते हैं, पर सम्पूर्ण लम्बाई में inscriptions लिखें है जिन्हे कई तमिल पर्यटक और श्रद्धालु पढ़ते हुए दीखते है. हालाँकि तब और अब की तमिल लिपि में बहुत परिवर्तन हुए लेकिन सामान्य लोग भी बहुत कुछ पढ़ पाते हैं. इनमे राजराजा की केरल, मदुरै, और लंका पर विजय तो अंकित है ही, लेकिन बहुत बड़ा भाग मंदिर को समय समय पर मिले सोने, चांदी , ब्रोंज़ की प्रतिमाएं आदि दान का लेखा-जोखा है. इनसे पता चलता है कि मंदिर में लगभग 800 कर्मचारी थे जिनमे 400 मंदिर की नृत्यांगनाएं और 50 संगीतकार थे जो अनवरत तेवरम (तमिल शैव-संतों द्वारा रचित भक्ति-रचनाये) का गान करते थे. इन्ही पट्टलेखों के अनुसार इस मंदिर के स्थापति( architect ) थे- विरचोलान कुंजरामल्लन या राजराजन पेरुंदच्छन, नित्तविनोद पेरुंदच्छन, एव कुण्डादित्य पेरुंदच्छन।
inscriptions के अनुसार मंदिर को लगभग 66 धातु-मूर्तियां भेंट मिली जो कि स्वर्ण, चंडी, ताम्बा, bronze और brass की थी. Inscriptions में इन मूर्तियों के नाम, पहचान, इनकी ऊंचाई और वजन, iconographic फीचर जैसे कि कितने हाथ, मुद्रा, आदि तक विस्तृत विवरण से लिखें हैं. इनमे से अब कुछ ही शेष बची है, लेकिन मंदिर की दीवार पर उत्कीर्ण पाषाण-शिल्प का वैभव आज भी ज्यों का त्यों है.
Chola Paintings at Brihadeesvara Temple, Thanjavur (चोला काल की पेंटिंग्स)
मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है जिसकी चारो ओर दो दीवारे- एक अन्तरीय और एक बाह्य दीवार है. इन दोनों दीवारों के मध्य इस मंदिर का प्रदक्षिणा पथ है. इसी प्रदक्षिणा पथ में छुपा है अतुलनीय वैभव- राजराजा चोला के समय में ही की गई चित्रकारी। ये पेंटिंग सही अर्थों में fresco paintings में आती है क्योंकि इन्हे गीले प्लास्टर पर ही सीधे रंगा गया है. इसके अलावा इसी प्रदक्षिणा पथ में ऊपरी तल में नृत्य की 108 करणों (मुद्राओं ) में से करीब 80 यहाँ सबसे पहली बार उकेरी गई हैं.
हिन्दू मंदिरों में बची प्राचीन चित्रकारी में इसका स्थान सर्वोपरि है लेकिन यह पर्यटकों और श्रद्धालुओं, किसी के भी लिए नहीं खुला है. कारण है इन चित्रों का अत्यन्य नाजुक अवस्था में होना। दरअसल इन दसवीं सदी में बने चित्रों के ऊपर ही नायक काल में उनके द्वारा नए चित्रण किये गए और ये धरोहर सदा के लिए मिट ही गई. नायक काल के चित्रों को सतह से अत्यधिक सावधानी से हटा कर इन्हे पुनर्जीवित् किया गया. इन पेंटिंग्स को ढूंढने और नायक काल की पेंटिंग्स को हटाने की रोचक घटना आप यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं.
इन पेंटिंग्स का कला-इतिहास में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है. हिन्दू मंदिरों में बची पेंटिंग्स में अधिकांश बचे-खुचे अवशेष ही हैं. पर्यटक जिसे बिना अवरोध देख सके और सराह सके वो है 16वीं सदी में बने लेपाक्षी स्थित मंदिर की पेंटिंग। लेकिन अगर प्राचीनता की बात करें तो तंजावुर की पेंटिंग्स 11वीं सदी की चोला काल की बेहतरीन धरोहर है जो अजंता एल्लोरा तथा सित्तनवसल के गुफा मंदिरों और विहारों के बाद के समयकाल में आती है लेकिन लेपाक्षी से बहुत पहले।
लेपाक्षी मंदिर की पेंटिंग्स पर मेरी पोस्ट यहाँ पढ़ें।
Sculptures of Brihadeeswara Temple (मंदिर का शिल्प वैभव) –
प्रदक्षिणा पथ की बाह्य दीवार के भीतर वाले भाग पर पेंटिंग्स है तो इसके बाहर है शिल्प वैभव। दर्शन के बाद आप अर्ध-मंडप की lateral सीधी से बाहर निकल आये तो इस शिल्प-वैभव को घंटों निहार सकते है.
गर्भ-गृह का base जिसे अधिष्ठान कहते हैं, पांच भागो में बना है. इस पर सम्पूर्ण लम्बाई में inscriptions लिखे हैं. इसके ऊपर गर्भ-गृह की दो मंज़िला दीवार जिसे भूमि कहते हैं, दो तलों में बनी है. निचली भूमि पर मध्य में खिड़की, उसके दोनों ओर द्वारपाल और बाकि niches में शिव के विभिन्न रूपों के प्रस्तर-शिल्प हैं. ऊपरी भूमि पर भू मध्य में खिड़की और बाकि सभी niches में शिव के त्रिपुरान्तक रूप की भिन्न भिन्न मुद्राओं में प्रतिमाये हैं.
गर्भ-गृह के ठीक पीछे यानि पश्चिम, और इसके उत्तर-दक्षिण भाग की दीवार (भूमि) के निचले भूमि पर मध्य में खिड़की है जो प्रदक्षिणा पथ में हवा-रौशनी प्रदान करती है. इन द्वारनुमा खिड़कियों के दोनों ओर भी वैसे ही द्वारपाल बने हैं. द्वारपाल आकर में सभी अन्य प्रस्तर-प्रतिमाओं से बड़े हैं.
गणेश और महिष-मर्दिनी के आलावा अन्य प्रतिमाये शिव के अनेक रूपों को दर्शाती हैं. प्रतिमाओं में एक लचीलापन और उदात्तता साफ़ दिखती है. राजराजा चोला काल की इन प्रतिमाओं में शरीर की बनावट और मुद्रा या सरल शब्दों में कहें तो हाथ-पेर और कटि आदि भागों का मुड़ाव दोष-रहित और तरलता लिए है.
अर्धमंडप में ले जाने वाली दोनों ओर की पार्श्व-सीढ़ियों पर द्वार के दोनों ओर द्वारपाल और सीढ़ियों से लगी दीवारों पर लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्ति प्रस्तर में भी शांत, सौम्य, सजीव लगती हैं. इनके मुख के भाव आप सराहे बिना नहीं रह पाएंगे।
अर्धमंडप के बाईं ओर की सीढ़ियों से निकले तो आप गर्भ-गृह के दक्षिण की दीवार के सम्मुख होंगे। बाहर निकल कर सीढ़ी के सीधे हाथ की और गणेश और लक्ष्मी (उनके हाथ में शंख और चक्र से आप इसे पहचान सकते हैं) की मूर्ति है. सीढ़ी के बाईं और चले तो क्रम से आप जिन मूर्तियों को देखते हैं वे हैं- भिक्षाटनमूर्ति , दक्षिणामूर्ति, मार्कण्डेय अनुग्रह मूर्ति और नटराज। यहाँ से मुड़ते ही आप गर्भ-गृह के ठीक पीछे यानि पश्चिमी दीवार पर देखते हैं लिंगोद्भव, दो द्वारपाल और अर्धनारीश्वर आदि। ये देखने के बाद आप मुड़ते हैं तो गर्भ-गृह की उत्तरी दीवार पर देखते हैं गंगाधर, कल्याणसुन्दर, महिषमर्दिनी और उमा-महेश्वर इत्यादि।
Temple Courtyard मंदिर प्रांगण_
मंदिर प्रांगण में भिन्न भिन्न काल में बने छोटे या उप-मंदिर है – सुब्रह्मण्यम मंदिर, गणेश मंदिर, वराही मंदिर और अम्मान मंदिर। लेकिन इस मंदिर के अनुभव को रंग देते हैं यहाँ आये श्रद्धालुगण और पर्यटकों को देखते रहना। बालों में फूल लगाए महिलाएँ, मुंडू को आधा ऊपर चढ़ाये पुरुष, स्कूली बच्चों की पलटने, कैमेरा लटकाये पर्यटक, अर्ध्य का सामान लिए श्रद्धालु, धूप से बचकर यहाँ-वहां विश्राम करते पुजारी, घंटे तक मंदिर में बैठ ॐ नमः शिवाय का जाप करते आराधक, इतने खुले प्रांगण को देखकर कुलांचे मारते बच्चे तो भारी देह को भी किसी तरह सीढ़ियों से चढ़ाकर प्रभु तक ले जाते वयस्क, फोटो खींचने में मगन परिवार तो अपने में मगन प्रेमी युगल। मैं भी कहीं तो इस में फिट होती हूँ- बैठ कर भजन भी गाए तो पर्यटक भी बनी।
बाह्य यात्रा और अंतर्यात्रा – एक ही मनुष्य के दो आयाम हैं जैसे पक्षी के दो पंख. जीवन की उड़ान समरस रहे, इस के लिए दोनों ही आवश्यक है.
Resources –
Archaological Survey of India
A history of South India by Pt. Neelkant Shastri
The Chola Temple by C. Sivaramamurty
Travel Tips:
1. तीनों मंदिरों को देखने के लिए आप कुम्बकोनम को बेस बनाये तो आसान होगा।
2. गर्भ-गृह में दर्शन के समय अन्य मंदिरों की तरह ही है, लेकिन वैसे सम्पूर्ण प्रांगण और मंडप आदि ASI के नियमानुसार सूर्योदय से सूर्यास्त तक खुले हैं.
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