खीचन की गलियां

कुरजाओं से सुबह की मुलाकात व्यस्त रही। खीचन में आती हैं हज़ारों कुरजां शीतकालीन प्रवास के लिए सुदूर मंगोलिया चीन से , ठीक वैसे ही जैसे बेटियां आती रही हैं मायके गर्मी की छुट्टियों में। जब भोर पूरी उतरी भी नहीं थी, तभी वे किसी अमूर्त, अलिखित नियम का पालन करती, अपना रेन बसेरा छोड़ खीचन गांव की तरफ दिन के लिए निकल पड़ी थी। आसमान में पंक्तिबद्ध।

जब पहुंचे उनके चुग्गा-घर तो मजमा लगा हुआ था। एक दूसरे से अटी-सटी, गले में काला मफलर डाले, सर पर काला -सफ़ेद झूमर वाला हेडबैंड लगाए नाश्ता कर रही थी मां की रसोई में। निर्भार होकर बतियाते हुए।

खीचन वासी भी तो क्या नहीं करते इनके लिए। बरखा समाप्त होते ही इनके आने के समय के कयास लगाने लगते हैं। पलक पांवड़े बिछा इन्हे अपने यहां बुलाते। इनकी राह की बाधाएं हटाते – बिजली के तारों को जमीन में गढ़वाते तो आवारा घूमते कुत्तों से इनकी रक्षा को बाड़ लगाते।

जब दिल भर चुका हमारा इन बेटियों की मायके में पसरी स्वंतंत्रता और सुख देखकर, तो निकले गांव की गलियों में।

खीचन की गलियां हवेलियों से सजी थी लेकिन सूनी पड़ी थी। कंगन की खनक ना राजस्थानी बोली की धनक, ना ही कहीं सुनी मोजड़ी की चरचर पदचाप। बोरले की चमक, ओढ़नी की लटक नहीं, तो गिल्ली डंडे और सतौलिआ की धूम भी नहीं कहीं भी। मूंछों के ताव भी न बचे तो पाग के रंग भी तो ना दिखे इन गलियों में। अतीत की इससे अधिक क्या पहचान हो सकती है भला। कितना ही लौट लौट कर अतीत में जाओ, वहां जी नहीं सकते। हाँ, वहां यादें कुरेद सकते है, पुरातन का स्पंदन भी महसूस कर सकते हैं, लेकिन इससे अधिक और कुछ नहीं।

हमारी आठ आँखों ने बहुत ताका -झाँका लेकिन किसी ने उन झरोखों से हमें न देखा। कुछ बंद पड़ी फाटकों पर वक्त के ताले जड़े थे और कुछ पर वक्त ये करना भी भूल गया। ठन्डे हाथों से खोली फाटक, तो अतीत चर्र कर बोल पड़ा। भीतर फिर जाने का मन न हुआ। मकड़ियों ने तो बीते पलों को तार तार कर जाले बना लिए थे , क्या जाने किसी के अतीत के दंश सांप-बिच्छू बने अभी भी हों भीतर। या फिर चमगादड़ों ने ही खोल फेंकी हो बरसों से बंद पोटली की गंध।

न कोई उन झरोखों से झांक रहा था, न ही कोई उन काष्ठ की फाटकों और किवाड़ों से बाहर आ रहा था। अलबत्ता इतनी उत्कृष्ट काश्तकारी देख कर हम महीन मन हुए जाते थे। हवेलियों के निचले तल पर दुकाने ग्राहक का नहीं, मालिक के आने का इंतज़ार कर रही थीं।

लेकिन ये सब मुझे व्यथित नहीं करता । जीवन जब कहीं और बेहतर होता हुआ दिखा तो वहीं चल पड़े कदम। मनुष्य ही नहीं, सभी जीव करते हैं ऐसा। चींटी से लेकर शेर तक। वे भोजनपानी और अनुकूल आश्रय की तलाश में करते हैं, लेकिन मनुष्य के तो नामकरण में ही मन है, तो उसके ‘बेहतर ‘ के मायने और बहुआयामी हैं।

दूर जब तारा टूटे ब्रह्माण्ड में तो हम उसे शुभ क्षण मान कर अपनी किसी कामना के पूरी हो जाने की प्रार्थना करने लगते हैं। विध्वंस में सुख रचा-बसा हो जैसे! किन्तु जब अपना घर द्वार छूटे तो व्यथा का राग ही बन जाते हैं बस। फिर एक नया , सुखकर घर पाकर भूल रहते अतीत को, भूल जाते बिछुड़ने का दुःख । ऐसा ही है मानव मन ! तो इस मन को जब ऐसे चंद्र कलाओं की तरह घटते बढ़ते देख लिया, जान लिया तो मुझ पर अब अमावस नहीं घिरती इन दृश्यों से।

बस एक अरज अवश्य उठती है- ये धरोहर संरक्षित रह जाए।

फिर बाह्य ठहराव जीवन भी तो नहीं है। बाहर तो निरंतर गतिशील होना है नियति जीवन की, लेकिन भीतर ठहराव को पाना है लक्ष्य मनुष्य जनम का। बड़ा ही उलट बांसी है ये भीतर बाहर का खेल। तो महल अटारी खड़े करने है, शादी ब्याह भी रचने हैं, पुस्तकें भी पढ़नी है और यात्राएं भी करनी है, कैरम भी खेलना है और सजना संवारना भी है लेकिन ‘उस दिन की संध्या भी होती जिस दिन की होती है भोर’ इतना भर भी याद रख लेना है।

फिर एक भटकाव हो गया लिखते हुए। क्या किया जाए? जब आँखे भीतर मुड़ने की आदत डाल लें तो फिर सभी दृश्य, वस्तुएं, अनुभव और घटनाएं बाहर होती हैं लेकिन अनजाने ही अनुभूति उनका सार भीतर में निचोड़ देती है। तब फिल्मों के प्रेम भरे गीत भी उसी की याद दिलाते है।

बलुआ पत्थर से निर्माण अनुकूल रहा राजस्थान में। प्रचुरता में मिलता है, तापमान को सहता है और सोखता है, राजस्थान के परिवेश में घुलमिल सा रहता है, अधिक रख-रखाव भी नहीं मांगता।

मजबूत होने के साथ साथ ,बालू के एक एक कण की जोड़ से बना, अनेकों रंगों में मिलने वाला ये पत्थर अपने आपको ऐसा बनाता है कि समय के थपेड़ों के सामने तो यूँ नहीं झुकता किन्तु कुशल हाथों में छेनी हथोड़ा हो तो अपना निज मिटा कर उसका दिया रूप लेता है।

निज के मरण पर जन्मा सौंदर्य जैसे मीरा के भजन और दादू के दोहे। ऐसी ही हैं ये हवेलियां भी। शेखावटी और जैसलमेर की तरह प्रसिद्धि तो न पाई हैं इन्होने, लेकिन अगर आप यहाँ हैं तो इन गलियों से गुजरना एक उम्दा अनुभव बनेगा- बाह्य और भीतर यात्रा का।

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5 Comments

  1. आपके लेखन का तो मुरीद हूँ । मायके आती कुरंजाओं से शुरुआत करके हवेलियों का अपने मालिकों के बिछोह ।आपका गद्य भी पद्य की तरह सरस होता है । अद्भुत !

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