तमिलनाडु में रामायण

तमिलनाडु में प्राचीन काल में रामायण

यात्रा व्यक्ति के जीवन में अनेक आयाम खोलती है. ना सिर्फ यात्रा मनुष्य के स्वभाव को विस्तृत और वैश्विक परिप्रेक्ष्य देती है अपितु अनेक विषयों में रूचि भी जागृत करती है.

यात्रा केवल भूगोल को मापना ही नहीं, अपितु पेड़, पर्यावरण, पक्षी, जीव-जंतु, स्थानीय कला-साहित्य, रीति-रिवाज़, स्थापत्य और शिल्प-कला, इतिहास जैसे कई अनेक विषयों से परिचित होना भी है.

अब रामायण के विषय को ही लीजिये। महाबलीपुरम, तमिलनाडु की यात्रा के दौरान एक तमिल परिवार से बातचीत होने पर ये जाहिर हुआ कि अनेक तमिल परिवारों में तमिल महीने ‘आदि’, जो जुलाई-अगस्त के सामयिक है, में प्रसिद्ध तमिल कवि कम्बार द्वारा रचित कंबरामायण या रामावताराम का बड़े ही मनोयोग से पाठ किया जाता है और इस महीने में इसका पाठ पुण्यदायी और शुभ माना जाता है. मंदिरों में भी इसका पाठ किया जाता है.

मेरे लिए ये तथ्य नया था. तमिलनाडु प्रभु राम की कर्म-स्थली रहा जहाँ से उन्होंने सेतु बनाकर लंका के लिए प्रस्थान किया। रामेश्वरम स्थित मंदिर में उन्होंने भगवान शिव की पूजा की, इतना तो जग-जाहिर है. कम्ब रामायण के लिए मेरी अनभिज्ञता ने मुझे तमिलनाडु में श्री राम और रामायण के बारे में जानने को प्रेरित किया जिसे मैं इस लेख में आपके साथ साँझा करुँगी।

तमिलनाडु में रामायण के प्राचीनतम संदर्भ हमें संगम कालीन साहित्य में मिलते हैं. संगम साहित्य की अवधि ईसा से ३०० साल पूर्व से लेकर तीसरी सदी तक मानी जाती है.

संगम साहित्य की प्रसिद्ध आठ साहित्य में से एक है पुरणनुरू. इसमें एक मजेदार प्रसंग है जिसमे एक कवि से प्रसन्न होकर राजा उसे कीमती गहने पुरस्कार में देता है. वो कवि उन गहनों को अपने परिवार जनो को देता है. उन्होंने पहले ऐसे आभूषण देखे नहीं थे तो वो कमर बंध को गले में, कर्ण -कुण्डल को अंगुली में पहन लेते हैं.

इस प्रसंग के लेखक ने इसकी रामायण के उस प्रसंग से तुलना की है जिसमे ऋष्यमूक पर्वत पर वानर-वृन्द, मां सीता द्वारा गिराए गए आभूषणों को ऐसे ही उलटा-पुल्टा पहनते हैं. इससे हमें ये ज्ञात तो होता है कि रामायण उस काल में तमिल जन-मानस में विदित और लोकप्रिय थी. (Indian Epic Values :Ramayana and its impact by Pollet, Chapter- Rama Temples and Traditions in Tamilnadu)

ईस्वी सदी के आरम्भ में रचित ‘सिलपट्टीकरम’, जो तमिल साहित्य की पांच श्रेष्ठ कृतियों में से है, उसमे भी रामायण के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं. लेखक ने इसमें राम को विष्णु का अवतार मानते हुए लिखा है कि – भगवान विष्णु के पुण्य-चरण जिनसे उन्होंने त्रिविक्रम के रूप में ब्रह्माण्ड को नापा था, वे आज वन में लक्ष्मण के साथ चलते हुए रक्त-रंजित हो गए हैं. (Indian Epic Values :Ramayana and its impact by Pollet, Chapter- Rama Temples and Traditions in Tamilnadu)

संगम काल के बाद हमें रामायण का तमिल इतिहास में प्रचुरता से व्यापीकरण मिलता है. छठी से नवीं सदी के बीच तमिलनाडु में वैष्णव भक्ति परंपरा बहुत प्रचलित हुई और उसी परंपरा में बारह वैष्णव संत जिन्हे तमिल में अलवार कहा जाता है, उन्होंने अनेक भक्ति-काव्यों की रचना की जिन्हे नलाईरा-दिव्य-प्रबंधं में संकलित किया गया.

इन भक्ति काव्यों में भगवान विष्णु, श्री राम और श्री कृष्ण को इष्ट मानते हुए संतों ने विभिन्न रसों में आपूर्ण हो कर भक्ति भाव लिखें हैं. प्रेम रस, श्रृंगार रस, करुण रस , विरह, आर्त आदि भाव के साथ हमें उसमे वात्सल्य भाव भी मिलता है. इन अलवार संतों के भक्ति-माधुर्य में हालाँकि कृष्ण को समर्पित काव्य अधिक हैं, किन्तु रामायण के भी बाल कांड से लेकर उत्तर कांड तक, सभी प्रसंगों का उल्लेख मिलता है. ( The Ramayan in the Theology and Experience of the Sri Vaishnava Community by Vasudha Narayanan, originally in Journal of Vaisnav Studies-1994)

इतना ही नहीं, अलवार संतों ने राम को रामायण के भिन्न चरित्रों की दृष्टि से भी सम्बोधित किया है. कुलशेखरा अलवार जहाँ अपने आपको दसरथ के शोक भाव में राम को पुकारते हैं, तो वहीँ तिरुमन्काइ अलवार पराजित राक्षसों के रूप में श्री राम से क्षमा और उद्धार की प्रार्थना करते हैं.

लेकिन सबसे अनूठी बात तो ये है की राम को भी संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार तथा वात्सल्य रस में पुकारा है. ये दोनों रस कृष्ण भक्ति में ही मिलते है. राम को अपना प्रियतम मानकर पुकारना दुर्लभ ही है.

प्रसिद्ध अलवार नम्माल्वार ने नायिका के रूप में काकुष्ट राम के विरह में लिखा है ( अनुवाद मैंने अंग्रेजी से किया है- Nammalvar- Hymns for the drowning: Poems for Vishnu, Penguin Classics )

रे मन, तू भी मेरो न भयो!

रात काली, पसरी जुग समान
दिवस का कहूं न दिखे विधान।

जो मेरे काकुष्ट
दिव्य धनुरधारी, दरस परस न आवें,
प्राण आज मोरे निकस ही जावे।

ऐसी विरह की अगन लगी
रवि भी लुक गयों, मोरी पीर देख न पावे।
(तिरुवायमोली 5-4-3 एवं 4, पंक्ति 1.)

इसी प्रकार कालुशेखरा अलवार ने राम को वात्सल्य भाव में भी एक बहुत ही मधुर लोरी के रूप में कौसल्या के मुख से याद किया है. मन्नुपुगध (Mannu pugazh) नाम से सुविख्यात इस लोरी को आप यू ट्यूब पर अनेक प्रसिद्ध गायकों की आवाज़ में सुन सकते हैं. बॉम्बे जयश्री द्वारा गायी गई वात्सल्य एल्बम में सात पारम्परिक लोरियों में से ये भी एक है. इस लोरी को तमिलनाडु के घरों में भी आप नानी-दादी के मुख से सुन सकते हैं. विस्तृत महाकाव्य रामायण को ग्यारह पदों में लिखने का श्रेय भी कलुशेखरा अलवर को जाता है.

सिर्फ साहित्य ही नहीं , तमिलनाडु का रामेश्वरम मंदिर तो राम लला का पर्याय ही है और इसके साथ जुडी रामायण की घटना सर्वविदित है. किन्तु और भी मंदिर हैं जो प्रभु राम से जुड़े हैं.

तिरुचिरापल्ली के समीप श्रीरंगम में स्थित श्री रंगनाथस्वामी मंदिर की कथा भी मधुकर है. हालाँकि कथा के भिन्न रूप प्रचलित हैं, किन्तु मूल कथा ये है कि भगवान राम ने विभीषण के आग्रह पर स्वंय रंगनाथ की ये मूरत उन्हें दी.

कथा का एक अंग कहता है कि राम इस मूरत को लंका में नहीं देखना चाहते थे क्योंकि लंका सीता के दुखों की भूमि थी. अतः लंका ले जाते समय ये मूरत यही रही और टस से मस नहीं हुई. फिर विभीषण के आग्रह पर श्री रंगनाथस्वामी ने उन्हें वचन दिया कि वे सदा लंका की ओर देखेंगे। इसीलिए आज भी श्री रंगनाथ का मुख दक्षिण की ओर है. इसी मंदिर के प्रांगण में कवि कंबार द्वारा बारहवीं सदी में रचित कंबरामायण का विमोचन भी हुआ था.

इसके अलावा तिरुपुलनभूतमकुड़ी दिव्यदेशम जो कि कुम्बाकोनम के पास स्थित है, जटायु मोक्ष से जुड़ा है. कथा है कि यहाँ श्री राम ने जटायु को मोक्ष प्रदान किया। यहाँ राम के विग्रह के साथ सीता नहीं है क्योंकि सीता उस समय लंका में अपहरित थी. (templenet.com/tamilnadu/ramayana)

इस तरह प्राचीन काल से ही प्रभु श्री राम तमिलनाडु के जन मानस में कहीं लोरी में तो कहीं आदि मास में पठित रामकथा में, अलवार संतों की भक्ति-काव्यांजलि में और साकार रूप में अनेक मंदिरों में रचे बसे हैं.

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