- वायनाड का भोजन और आतिथ्य
बांस से बने इस घर में रहना बड़ा ही सुहाना था . त्रिक्काईपेट्टा जिसे bamboo village के नाम से भी जाना जाता है, केरल के वायनाड क्षेत्र का एक छोटा सा गांव है, जहाँ इस होमस्टे में हम रहने पहुंचे।
हम्म। इस घर की तो कोई बाउंड्री ही नहीं बनी ! बेहतर। नियमों और लकीरों में बंधना भला किसे रास आता है। घर के चारों ओर लगी झाड़ियों में कहीं एक बांस से बनी फाटक थी। उसके भीतर जाते ही एक नयी दुनिया आरम्भ हुई। प्रवेश करते ही एक कुमुदिनी से खिलखिलाता छुटका सा पानी का ताल मिला, जिस पर बांस का बना छोटा सा पुल हमें घर के बरामदे में ले गया . इतनी सी दूरी में मन पहुँच गया बहुत दूर- बचपन की जन्माष्टमी की घर घर बनी झांकी में, जहाँ पानी के छोटे से कुंड के ऊपर पुल बनाते थे।
घर तो पूर्वोत्तर राज्यों के घरों की तरह खम्भों के ऊपर खड़ा था! जिसके नीचे पूरे में एक बड़ा पानी का जलाशय था जो इनका मछली गार्डन था !! किचन गार्डन की तरह!!! घर के अंदर बैठक इसी जलाशय में खुल रही थी, बिना किसी जाली या खिड़की के। यहाँ दीवार से सटी बेंच पर बैठकर हम सभी नीचे जलाशय की बतखों को देखने में व्यस्त हुए जाते थे . छुटके की किलकारियां इन बतखों को भी पिछाड़ देती थीं . घर में कभी सन्नाटा पसरने नहीं देती। जब कोई न हो तो बतखें ही इस घर की असली स्वामी लगती होंगी।
घर के मालिक बाबूराज की अपनी दूकान थी और बाकी समय वे सामुदायिक कार्यों में लगाते थे . मालकिन श्रीजा बम्बू क्राफ्ट सेंटर में काम करती थी और बच्चे पढ़ने जाते थे .
बांस से बनी घुमावदार सीढ़ियों से हम अपने दूसरे तल पर के कमरे में पहुँचे . कमरा बड़ा और आरामदायक . इसकी बालकनी नीचे के जलाशय की तरफ खुलती थी जहाँ हमेशा एक या दो किलकिले (किंगफ़िशर) मछली की टोह में उड़न भरते रहते थे। बच्चे उसकी टोह में कि कब वो मछली पकड़ेगी, बालकनी में डेरा डाले रहते थे। ऊब कर छोटा जाके घुमावदार सीढ़ियों में बैठता , फिर जाके नीचे घर के अंदर से बतखों को झांकता , पुनः ऊपर आता और ये क्रम जब तक घर में रहे , अनवरत चलता रहता.
कमरे की दूसरी बालकनी क्षितिज तक फैले सुपारी, नारियल और अन्य पेड़ों के मुक्तांगन में खुलती थी। केरल में पक्षियों को देखने में जो मुसीबत पेड़ों की ऊंचाई की वजह से होती है, वो संयोग से यहाँ हल हो गई . अब हम ऊपर और पेड़ों के मुकुट हमसे नीचे थे, और उड़ती चिड़िया के पर गिनना आसान हो गया .
सुबह जब आँख खुली तो धुंध के साये में लिपटा रहस्य का सन्नाटा बालकनी तक आया पड़ा था . फिर जब किरणों के रथ पर धूप का हवलदार आया तो न जाने वो कहाँ छुपा? उसके आने से पेड़ मुस्कुराये और पंछी फुदकने लगे. लपक कर कमरे में से दूरबीन और कैमरा लाया गया और चिड़ियों के रूप को कैमरे में आज़ाद किया। घंटा भर बीता होगा जब बच्चे अलसाये से उठ कर बालकनी में पहुंचे और एक ने दूरबीन तो दूसरे ने कैमरे पर अधिकार जमा लिया।
मनीष पर उनको तैयार करने का जिम्मा सौंप मैं नीचे गई तो देखा श्रीजा हमारे नाश्ते की तयारी में लगी थी। लम्बे सिलिंडर नुमा बर्तन में गैस पर कुछ पकता देख बड़ा ही कौतुहल हुआ।
” ये क्या है?”
” ये पुट्टु -कुट्टी है. मैं नाश्ते में पुट्टु -कडला करी बना रही हूँ.”
इससे पहले भी केरल की पंद्रह दिन की यात्रा की थी , लेकिन किसी होटल ने ये तो कभी न खिलाया था. और ये बर्तन भी तो अनोखा ही था . नीचे से ही जोर से मनीष और बच्चों को आवाज़ लगाई। कुछ ही पल में हम सब श्रीजा को घेरे खड़े थे।
इस पुट्टू कुट्टी को श्रीजा ने पहले कसे नारियल और उसके ऊपर चावल के भुरभुरे आटे से भरा. फिर से एक परत नारियल और फिर चावल का भुरभुरा आटा . फिर इसे भाप में पकाया दस मिनट और निकला गर्मागरम चावल और नारियल से बना एक परफेक्ट सिलिंडर।
टेबल पर इसे पहले केले के साथ, फिर कडाला करी (जो नारियल और काले चने से बनती है) के साथ और आखिर में पापड के साथ खाया। सब ऐसे अंगुलियां चाट कर खा रहे थे कि उन्होंने एक दिन और भी पुट्टु बनाया।
अब इतना सात्विक और स्वादिष्ट नाश्ता करके निकले हम गांव की साफ़-सुथरी सड़कों पर – धान के खेतों, रबर के बगीचों, बांस के झुरमुटों के इर्द गिर्द मंडराते, कभी आसमान छूते घने पेड़ों से बतियाते तो कभी राह किनारे निष्कर्म भाव से उगे जंगली फूलों से हाथ मिलाते। उस समय गांव में एक हम ही थे जो बाहरी थे- गांव के पक्षी, फूल, पेड़-पौधे, इमारतें और लोग -ये तो सब आपस में एकदूसरे को रोज ही जानते थे. अब हम इन्हे और ये हमें जिज्ञासु किन्तु प्रेम पूर्ण नजरों से देख रहे थे. जब दोपहर हुई तो खाने के लिए लौट चले हम भी घर को.
लंच में बना एरिशेरी – कद्दू और मसूर से बना stew , कुट्टू करि , कुछ चटनियाँ जिसमे सबसे स्वाद थी इंजीपुली (अदरक इमली की चटनी ) और साथ में चावल। बड़े बेटे ने तो ऐसे खाया जैसे इसके बाद कभी खाने को नहीं मिलेगा। उसको ऐसे खाते देख मेजबान ने बड़े ही प्रेम से उसकी प्लेट फिर से भर दी, जैसे उसकी दादी करती है. लेकिन जब छोटे ने भी और माँगा तो श्रीजा के चेहरे पर मुस्कान दूर तक फ़ैल गयी.
खा पीके फिर से बाहर निकले। बूँदे पड़ने लगी तो घर को लौट चले. गरमा-गरम पकोड़े और साथ में फ़िल्टर कॉफी पी कर पुनः जा बैठे दूसरे तल्ले पर बालकनी में. अक्टूम्बर का महीना था तो बारिश ताबड़-तोड़ नहीं पड़ रही थी, कुछ देर में रुक गई. इधर बारिश रुकी और उधर चिड़ियों का फुदकना शुरू। अब किताबे में डूबे मन को चिड़ियों ने आकर्षित कर लिया और अँधेरा होने पर जब वे अपने घरोंदों में लौट गई, तो हम भी नीचे श्रीजा के पास आ गए..
उतने में बाबूराज भी आ गए. उन्होंने अपनी छतरी अभी बाहर टिकाई भी न होगी कि मनीष ने प्रश्नो की पोटली खोल ली. जाने कितनी बार उन्होंने भी बचपन में सुना होगा कि कभी किसी को घर में आते ही अपने दिहाड़ा न सुनाओ, लेकिन मनीष को ये कहाँ याद. जब मैं कनखियों से याद भी दिलाऊं , बाबूराज मना कर दे. ये बातों का सिलसिला अब रात को ही थमा।
रात के भोजन में बना “पाइनएप्पल पुलीशेरी” – दही, अनानास और नारियल से बना – काफी कुछ हमारी कढ़ी से मिलता लेकिन फिर भी भिन्न। इसे चावल के साथ खाया और खाई रोटी के साथ “थोरन”- मिक्स सब्जियां जो नारियल के साथ बनी थी. मीठे में खाया पायसम।
आज तीसरे दिन जब दिन भर घूम कर घर पहुंचे तो पूरा घर एक भीनी, मनभावन सी खुशबु जो कि निश्चित ही किसी चावल की थी, से महक रहा था. महक चावल की थी लेकिन बासमती की तो अवश्य नहीं थी. सूंघते हुए रसोई घर में पहुंचे ।
” क्या बना रही है आप, खुशबू बहुत ही अच्छी आ रही है. ?” मैंने श्रीजा से पूछा।
“ये गंधकशाला चावल है.
” ये इतना खुशबूदार है लेकिन बासमती से बहुत बहुत भिन्न है.”
“हाँ. चावल की ये सेंटेड किस्म सिर्फ वायनाड में उगती है, दूसरी किस्म जीरकशाल भी यही उगती है. गंधकशाल बासमती से भी महँगी बिकती है क्योंकि वायनाड की सिर्फ कुछ जनजातियां ही इसे बोती हैं.” बाबूराज ने बताया।
आज तक मैं ये सोचती हूँ कि क्या कोई महंगा होटल भी ऐसी खातिरदारी और देखभाल करता? कि हमें चावल की स्थानीय, विलक्षण किस्मे खिलता?
धान की गंधकशाल और जीरकशाल किस्मों को Farmers’ Varieties सर्टिफिकेट मिला है
Protection of Plant Varieties and Farmers’ Rights Authority, Ministry of Agriculture, Government of India के अंतर्गत। कुछ 550 से अधिक खाद्य किस्मों को ये सर्टिफिकेट मिला है लेकिन ये पहला है जो “farming community” के अंतर्गत मिला है.
अगले दिन के नाश्ते में विशेष था -तीन तरह के केले और पथिरी – जो एक प्रकार की चावल की रोटी होती है.
हमारी उत्सुक आँखों और जिज्ञासु मन को देखे हुए आज बाबूराज ने हमें गाँव घुमाने का निर्णय लिया . कावू , बांस की किस्मे और उनका उपयोग, पेड़ और उनके औषद्गीय प्रयोग, और भी बहुत कुछ उन्होंने बताया लेकिन वो किसी और दिन, आज सिर्फ आथित्य की बात!
दिन भर uravu के बम्बू क्राफ्ट सेण्टर में दिन बिता कर सायंकाल की कॉफ़ी के साथ खाये पकोड़े। फिर निकल पड़े चिड़िया टापने। एक सज्जन, जो कि धान की खेती करते हैं, लेकिन वायनाड के जीव-जंतुओं के खासे विशेषज्ञ है, से मुलाकात थी । वे अपने घर ले गए जहाँ पहली बार देखा हमने दुनाली बन्दूक जैसा प्राचीन कैमरा। तब भी वो कार्यरत अवस्था में था. बड़े प्रेम से उन्होंने हमें नाश्ता कराया, बच्चों को अपने खींचे दुर्लभ फोटो दिखाए और हमें रात्रि में जंगल में उल्लू देखने का निमंत्रण दिया। अँधा क्या चाहे दो आँखें। लेकिन बारिश ने उस प्लान पर पानी फेर दिया।
आज रात्रि के भोजन में बना अप्पम, जो चावल और नारियल के बड़े ही पतले घोल से कड़ाही में डाल कर, हाथ से कड़ाई को घुमा घुमा कर बनाया जाता है. डोसा तो बच्चों को और हमें यूँ भी बहुत पसंद है लेकिन ये तो और भी जायकेदार था .
चार दिन बिताने के बाद देखा कि सभी की अंगुलिया थोड़ी घिस गई थी, आँखे और चमक गई थी और बच्चों के गाल थोड़े फूल गए थे !!!Travel Tips
( वायनाड बंगलोर से 280 kms , कोचीन से 275 kms है. सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन कोझिकोड है, जहाँ से आप बस और टैक्सी ले कर वायनाड पहुँच सकते हैं. वायनाड केरल के खूबसूरत पहड़ों में से एक है और घूमने के लिए कम भीड़ भाड़ वाला बेहद सुन्दर प्राकृतिक स्थल है.)