- कम्बोडिया यात्रा गाइड
- कम्बोडिया के हिन्दू मंदिर; Banteay Srei, Cambodia
कंबोडिया के विश्व प्रसिद्ध अंकोर वात से सभी परिचित हैं. पर्यटक उसी को यहाँ का मुख्य पर्यटक स्थल मान कर अपनी यात्रा की योजना बनाते हैं, और उसी के आस पास के अन्य स्थलों को भी देख लेते हैं. हालाँकि इतने मंदिर है बिखरे हुए कि सभी को देखना बाहर से आये पर्यटक के लिए संभव नहीं। किन्तु फिर भी, अंकोर और उस सर्किट के मंदिरों को देखने के आलावा एक थोड़ी दूर स्थित Bantaey Srei मंदिर को अवश्य ही देखना चाहिए।
अंकोर वात से लगभग 25 km दूर, जंगलों के बीच बसे Banteay Srei मंदिर का निर्माण आरम्भ हुआ था दसवीं सदी में और तभी पूरा भी हुआ, 967 BCE में. अंकोर के मुख्य मंदिरों में से यह एक मात्र मंदिर है जो किसी राजा ने या राजा के लिए नहीं निर्मित किया गया. इसे बनवाया था राजा राजेंद्रवर्मन के मंत्री यज्ञावहर ने. शुरू में इसके अधिष्ठाता भगवान शिव थे और इसका मूल नाम “त्रिभुवन महेश्वर” था. बारहवीं सदी के एक पट्टाभिलेख में यह लिखा है कि राजा ने ये मंदिर पुजारी दिवारक पंडित को दिया जिन्होंने इसे पुनः शिव मंदिर के रूप में स्थापित किया। इससे ज्ञात होता है की किसी समय ये मंदिर राजा के अधिकार में गया और उन्होंने संभवतः इसके आराध्य देव को बदला होगा। चौदहवीं सदी तक इस मंदिर के जीवंत होने के प्रमाण है और उसके बाद ये समय के गुबार में खो गया. 1914 में यह पुनः उस गुबार से बाहर निकला जब फ्रेंच पुरातत्वियों ने इसे ढूंढ निकाला.
सन 1930 में anastylosis विधि से इसका पुनरुद्धार किया गया.
इस विधि में जहाँ तक हो सके, उसी ईमारत के बिखरे पत्थरों को jigsaw puzzle की तरह जोड़ कर खड़ा किया जाता है. सबसे पहले बिखरे और ईमारत के सभी पत्थरों की जगह सुनिश्चित कर उन्हें चिन्हित किया जाता है. अगर शेष खड़ी ईमारत के स्थायित्व पर संदेह हो तो सारे पत्थरों को निकाल कर, बिखरे और निकले पत्थरों को उनके मूल स्थान के अनुसार रखा जाता है. हाँ, स्थायित्व के लिए कहीं कहीं नए पदार्थ भी प्रयोग किये जाते हैं. Banteay Srei जैसे मंदिर जो कि पूर्णतः शिल्प से जड़े हैं, उनका पुनर्संयोजन तुलनात्मक रूप से सरल होता है क्योंकि एक शिल्प या विग्रह को उसके अन्य टुकड़ों से puzzle की तरह जोड़ा जाता है. जब पत्थर सपाट होते हैं तब अधिक कठिनाई होती है क्यूंकि कौनसा खंड कहाँ लगेगा इसको तय करने के लिए कोई आसान सुराग हाथ में नहीं होता।
लाल-गुलाबी बलुआ पत्थर से बना यह मंदिर अंकोर के अन्य मंदिरों से अलग है जो की मुख्यतः धूसर-भूरे बलुआ पत्थर से बने हैं, यह आकार में भी उनसे बहुत छोटा है. किन्तु कला के क्षेत्र में ये इन सभी में बेजोड़ है.
भारतीय वास्तु शास्त्र के अनुसार निर्मित यह मंदिर पूर्व दिशा की ओर लक्षित है. इसका वास्तु योजन आप नीचे के चित्र में देख सकते हैं.
तीन गोपुरम अर्थात दरवाज़ों से होते हुए हम मंदिर के मुख्य प्रांगण में पहुँचते हैं, जहाँ उत्तर व दक्षिण में बने भवनों को खमेर आर्किटेक्चर में libraries के नाम से जाना जाता है. तीसरे गोपुरम के ठीक सामने, दोनों लाइब्रेरियों के बीच, मंडप से होते हुए मुख्य मंदिर तक जाते हैं. मुख्य मंदिर के दोनों ओर दो और मंदिर हैं जिनमे से एक भगवान विष्णु को समर्पित है तथा दूसरा भगवान शिव को ही.
पर्यटकों के उमड़ते सैलाब से इस छोटे मंदिर के बचाव हेतु एक रस्सी लगा दी गई है जिससे मंदिर के मुख्य प्रांगण में प्रवेश संभव नहीं। किन्तु तब भी आप इस मंदिर की अद्भुत कला का दर्शनानंद ले सकते हैं, क्यूंकि आप मुख्य प्रांगण की चारदीवारी के भीतर किन्तु रस्सी के बाहर होते हैं.
प्रथम गोपुरम के pediment पर त्रि-मुखी ऐरावत पर इंद्र, द्वितीय गोपुरम pediment पर गजलक्ष्मी विराजमान है. इससे भीतर जाने पर खंडित नंदी काल के चक्र की मूक गाथा सुनाता है.
तृतीय गोपुरम के पूर्व भाग पर शिव हैं नटराज के रूप में तो इसी के पृष्ठ भाग अर्थात पश्चिम दिशा में दुर्गा अपने प्रचंड रूप में.
तो प्रांगण में पहुँच कर सबसे पहले देखें दक्षिण की लाइब्रेरी को.
इस लाइब्रेरी के पूर्वी pediment (दरवाजे के ऊपर lintel और उसके ऊपर गोल या त्रिकोणात्मक आकर का pediment)पर नज़र जो टिके तो हटे ही नहीं। शिल्पकार ने रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाने की घटना का चुनाव किया है.कथा है जब रावण ने कैलाश पर्वत को दर्प से दमकते हुए उठा लिया और हिलाने या ले जाने का प्रयत्न किया तो महादेव ने अपने दाए पैर के अंगूठे से रावण को उसी के नीचे दबा कर रखा. रावण ने तब शिव स्तुति का उच्चार किया। उसकी कई वर्षों की तपस्या के बाद महादेव ने उस पर कृपा करते हुए उसे छोड़ दिया
शिल्पी के दक्ष हाथों की जितनी भी प्रशंसा की जाये कम. रावण के चेहरे पर क्रोध, असफल प्रयत्न, खिन्नता के भाव तो देवी पार्वती के चेहरे पर भय मिश्रित भाव, और उस पर महादेव के चेहरे पर शांत भाव. इस एक ही pediment में शिल्पकार ने अपने प्राण उंडेल दिए हो मानो। इतना ही नहीं, पूरी कथा को इस तरह एक ही जगह में उकेर देना, इसके लिए चाहिए कथा का पूरा ज्ञान,कल्पना की असीमित उड़ान और उड़ान को प्रतिबिंबित करते छैनी, हथोड़ी चलाते हाथ.
शिल्पशास्त्र में इस घटनाक्रम को दर्शाते विग्रह को भगवान शिव की “रावण अनुग्रह मूर्ति” के नाम से जाना जाता है. इसे हम भारत में अनेको स्थानों जैसे कि पट्टदकल, एलोरा , मदुरई आदि पर देख सकते हैं. लेकिन इस कंबोडिया के मंदिर के इस विग्रह का कला सौंदर्य में सानी नहीं।
चार सतहों में विभाजित यह निरूपण एक त्रिकोणात्मक pediment (दरवाजे के ऊपर बना गोल या त्रिकोण भाग) में स्वतः ही कैलाश पर्वत को आकार देता है. सबसे नीचे दशोमुखी रावण और भयभीत प्राणी, उसके ऊपर गणेश व नंदी, उसके ऊपर साधु तथा सबसे ऊपर महादेव पार्वती के साथ.
जितना भी निहारो, उस अनाम शिल्पी की कला तब भी पूर्णतः सराही नहीं जा पाती।
रावण के दस मुखों का 5-4-1 आयोजन, उसकी विकराल आंखे तथा दांत, उसके बीस हाथ, शरीर की आकृति ऐसे की जैसे सचमुच कैलाश के भार तले दबा जा रहा हो, मुड़ते, घिसटते पाँव और इससे भी बढ़कर चेहरे के भाव.
भयाक्रांत प्राणी जो डरकर भाग रहे हैं.
नंदी और गणेश और गण, जो भयभीत नहीं किन्तु प्रार्थनारत हैं.
साधु और ऋषि, जो रावण की ओर इंगित कर रहे हैं।
और ललितासन ( एक पाँव आड़ा मुड़ा हुआ, दूसरा पाँव नीचे को रखा हुआ हो, जो कि विश्राम भाव को दर्शाता है) समान आसन में बैठे शिव, एक हाथ से आशंकित पार्वती को थामे हुए, दाहिना पाँव नीचे कर अंगूठे से रावण का दर्प चूर-चूर करते हुए. शिल्पकार द्वारा आसन का चुनाव भी उसके गूढ़ ज्ञान को व्यक्त करता है कि शिव के लिए रावण कोई चुनौती ही नहीं है.
यह दृश्य था दक्षिण लाइब्रेरी के पूर्वी pediment पर. इसी लाइब्रेरी के पश्चिमी pediment पर भी शिव की ही एक अन्य कथा को उकेरा गया है, जिसमे कामदेव शिवजी पर काम-बाण चला रहे हैं ताकि वे देवी पार्वती में रूचि लें. इस शिल्प में शिव के चेहरे पर क्रोध तथा उनके बैठने का ढंग भी क्रोधित भाव दर्शाता है, वहीँ समीप ही देवी के बैठने का तरीके में उनका नैराश्य तथा दर्द झलकता है. भावों का ऐसा शिल्पन हमें बांधकर रख देता है. शास्त्रानुसार शिव के इस रूप को “कामांतकारी” रूप कहा जाता है, जो कि उनका संहारी रूप है.
इन दो pediments पर शिव के अलग-अलग रूप को शिल्पी ने देह की बनावट, बैठने की मुद्रा, हाथों के कोण, पैरों के मुड़ाव और चेहरे की भाव-भंगिमा से किस दक्षता से उलीचा है, इसके लिए किसी पर्यटक को कला-विशेषज्ञ होने की आवश्यकता नहीं। अगर आप इन कथाओं को जानते हैं तो शिल्पी की दैवीय कला की अनुभूति न करना संभव ही नहीं।
उत्तरी लाइब्रेरी के पश्चिमी pediment पर श्री कृष्ण को कंस का संहार करने की घटना को उकेरा गया है. पैनल के दोनों ओर रथ पर सवार कृष्ण और बलराम कंस के महल में प्रवेश कर रहे हैं. शिल्प से न सिर्फ ये ज्ञात होता है कि उस समय स्थानीय जनता को महाभारत का ज्ञान था बल्कि इस पैनल में कंस के महल से हम उस काल के काष्ट के खमेर महलों की सुंदरता और कारीगरी का अनुमान लगा सकते हैं. इसके अतिरिक्त वेशभूषा, आभूषण , देह में उस स्थान अर्थात उस वक्त के समाज के प्रचलन का भी संकेत मिलता है. इस तरह कला उस स्थान और समय के समाज और उसकी मान्यताओं का एक झरोखा बन जाती है, जो इतिहास में पुस्तकों या आलेखों में न भी लिखा गया हो, इन यत्र-तत्र बिखरे अवशेषों में अमर हो गया है.
इसी उत्तरी लाइब्रेरी के पूर्वी pediment पर आकर बुद्धि चकरा जाती है. एकबारगी लगता है कि यह दृश्य कृष्ण के गोवर्धन पर्वत को उठा कर इंद्र के प्रकोप से बचाने का है. ऐरावत पर सबसे ऊपर इंद्र, वर्षा, नाग, भयभीय प्राणी कुछ वैसा सा आभास कराते हैं. किन्तु श्री कृष्ण, गिरिधर के रूप में दिखाई नहीं पड़ते। और फिर प्राणी भयभीत क्यों हैं, यह प्रश्न भी उठता है. बहुत देर माथा पच्ची करने पर भी समझ नहीं आता कि यह दृश्य है क्या।
मोबाइल पर गूगल को पूछने पर वे इसे खांडव वन के जलने की घटना बताते हैं. अब और भी उलझन बढ़ जाती है. मैं ये तो नहीं कहूँगी कि मैंने पूरा भारत देख रखा है, किन्तु जितने भी प्राचीन मंदिर, गुफाएं, म्यूजियम आदि देखें हैं, कहीं भी खांडव वन की आग का शिल्पन या चित्रण नहीं देखा। देश से इतनी दूर, महाभारत के उस कांड का शिल्पन मन में अनेक चिंतन लहरें ला देता है. पहले तो ये कथा ही कुछ कम विवादित नहीं, फिर ये इतनी चर्चित नहीं, लेकिन सुदूर में यहाँ के स्थानीय लोगों का अपना निश्चित ही महाभारत, रामायण और पुराणों का स्वतंत्र अध्ययन व चिंतन रहा होगा, तभी तो किसी ने इस घटना का चुनाव किया।
कथा के विवेचन में न जाकर मैं केवल शिल्पी की अचंभित कर देने वाली कला पर ही केंद्रित रहूंगी।
pediment के बाईं और अर्जुन हाथ में बाण लिए रथ पर सवार होकर खांडव वन की ओर आ रहे हैं, दाईं और श्री कृष्ण हाथ में सुदर्शन लिए आ रहे हैं. उनके रथ के पहिये का पत्थर हट चुका है अतः पहिया नहीं दिखाई देता। लेकिन इससे आप किस तरह पत्थरों का संयोजन किया गया इसका अनुमान लगा सकते हैं. सबसे नीचे की row में हाथी, घोड़े, mythical जानवर आदि दिखाए गए हैं. इसके ऊपर खांडव वन को पेड़ों द्वारा दर्शित किया गया है, जिन पर वानर बैठे हैं. उसके ऊपर हंसों की एक पंक्ति जिसके बीच में तक्षक नाग है. सबसे ऊपर इंद्र, जिन्हे राजा तक्षक पूजता है, ऐरावत पर बैठकर जल बरसा रहे हैं ताकि खांडव वन की आग बुझाई जा सके और तक्षक का साम्राज्य तथा परिवार बच सके.इसी बरसते जल को अर्जुन अपने तीरों का अभेद्य ढाल बनाकर रोक रहे हैं ताकि अग्नि देव को उनको भूख मिटने का दिया वचन निभाया जा सके.
इतनी बड़ी कथा को इस एक ही pediment में दिखा पाने के लिए अवश्य ही शिल्पी को अनेको मॉडल बनाने पड़े होंगे कि कैसे इसे पूर्णतः दिखा सके. निश्चित ही शिल्पी इसमें सफल हुआ है. इतना ही नहीं, मनमोहक इंद्र, बरसता जल, क्रोधित और भयभीत तक्षक, व्यथित जीव. निर्जीव पत्थर को सजीव कर दिया शिल्पी ने, और कथा को बना दी एक आँखों देखी घटना।
मुख्य मंदिर तथा इसके दोनों ओर उत्तर तथा दक्षिण में बने मंदिरो के pediment और lintel पर नंदी पर सवार उमा-महेश्वर, भैंसे पर आसीन यमराज, धनदेव कुबेर, तीन हंसों पर सवार वरुण देव, जरासंध को चीरते भीम आदि दृश्य का अनुपम शिल्प बिखरा पड़ा है.
यहाँ भी वास्तु-शास्त्र के नियमानुसार ही कुबेर उत्तर दिशा में, याम दक्षिण दिशा में, इंद्रा पूर्व और वरुण पश्चिम दिशा में स्थापित है क्यूंकि ये इन दिशाओं के दिकपाल हैं. इनको सजाने सवारने को फूल पट्टी, लताये और मकर आदि का दिल खोल कर खनन किया है शिल्पी ने, इतना महीन कि धागे के समान, शायद सुई से ही किया हो कशीदाकारी की तरह. आँखों से जितना भी बटोरो इस खजाने को, ख़त्म हो ही न.
जिस भी कोण से आप इन प्रसातों को देखें, वानर, पक्षी और बाघ की मुखाकृति वाले इन अभि देवों की सुरक्षा चौकसी से आप छुप नहीं सकते। ये सभी प्रतिकृतियां हैं, असल मूर्तियां कम्बोडिया की राजधानी phnom pneh, और कुछ गैरकानूनी रूप से निजी संग्रह में रखी हैं.
देव, देवता, कथाएं , घटनाएं , वास्तु शिल्प, मंदिर का वास्तु आयोजन, सभी भारत से जुड़ा है, लेकिन गौर से देखने पर स्थानीय कलाकार का हाथ स्पष्ट रूप से इन्हे खमेर कला के रूप में परिभाषित करता है. जैसे कि, मुखाकृति जो कि आयताकार है, आँखें जो कि निश्चित ही भिन्न हैं, शरीर जो आकर्षक है लेकिन voluptuous तो अवश्य ही नहीं। फिर वस्त्र चयन पूर्णतः स्थानीय है. पुरुष और स्त्री (देव और सामान्य दोनों ही) धोती से मिलता जुलता वस्त्र पहने हुए हैं जिसे संपोत कहते हैं, लेकिन उसको बांधने का तरीका अलग है. आभूषण का अलंकरण कम है जो कि मूर्ति की सुंदरता को और उभरता ही है. केश विन्यास और मुकुट भी भारतीय शिल्प से भिन्न है. स्पष्ट भारतीय प्रभाव होने पर भी ये एक भिन्न कला श्रेणी, जिसे हम ख्मेर कला के नाम से जानते हैं, को बहुत ही मुखरता से व्यक्त करते हैं.
Bantaey Srei मदिर इसी खमेर कला का एक बेजोड़ रत्न है. इस मंदिर के एक एक इंच तराशे हुए पाषाण को संगीत ही कहना ठीक रहेगा। पाषाण पर चन्दन काष्ट के समान संगतराशी को और क्या उपमा दें भला. आभासी दरवाजे, जड़ाऊ खम्बे, खराद पर लकड़ी सी तराशी गयी पाषाण की खिड़किया, मकर तोरण, काल, नाग, यक्ष; जैसे किसी स्वर्णकार को बैठाया होगा इन पाषाणों को तराशने को. किन्तु सुनार तो न कर पाया होगा, उसे तो एक हार से अधिक बड़ा कुछ बनाने की दक्षता नहीं। तो क्या शिल्पी ने ये सब किया होगा?
आँखे देख कर विस्मित है, बुद्धि अब हथियार डालने को है, पैर थकने लगे हैं, गर्दन ऊपर देख कर दुःख सी रही है, मेमोरी कार्ड भी शायद जवाब दे दे, बच्चे पहले ही छाँव ढूंढ कर बैठ चुके हैं, और इस पोस्ट को लिखते हुए मैं भी सोच रहीं कि अब बस भी करूँ, किन्तु अभी कहाँ। देवता और अप्सरा तो छूट ही रहे हैं अभी. द्वारों के दोनों ओर, स्तम्भों पर, अचलायमान खड़े ये मूर्त देवता और अप्सरा मन को कितना टटोल रहे हैं, इन्हे भी नहीं पता. केश विन्यास, वस्त्र विन्यास, आभूषण, मुद्रा, मुख के सौम्य भाव, एक-एक शिल्प घंटो तक निहारो किन्तु तब भी शिल्पी की कला की थाह न मिले।
समय की सीमा से विवश होकर इस मोहपाश से बाहर निकलने को बने पश्चिमी गोपुरम पर इसके pediment पर बाली और सुग्रीव की लड़ाई और राम द्वारा बाली का वध आपको फिर से उसी मोहपाश में खीच लेता है. समय ही जीतता है और आप आँखों में अपनी ही धरोहर के सुदूर में बिखरे वैभव्य के चित्र लिए, मन में मिश्रित भाव लिए बस यादें संजो कर ला पाते हैं.
गिर चुके अन्य गोपुरम के बचे pediment जमीं पर सहेज कर रखे हैं तथा अभी भी anastolysis का कार्य जारी है. बाहर से मंदिर को देखने पर विश्वास नहीं होता की इतने छोटे से मंदिर में इतना वैभव लदा हुआ है. पत्थरों की संगीतमयी दुनिया से निकलते ही घने पेड़ों की छाँव में चलते हुए हम इस समूह के बाहर निकलते हैं, अतुलनीय वैभव को अपने कैमरे और यादों की गठरी में बांधकर।
विस्तृत विवरण,
बेहतरीन जानकारी के साथ।
धन्यवाद संदीप जी.