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- डबल-डेकर रुट ब्रिज, चेरापूंजी, Root bridges of Meghalaya.
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कांपते पैरों को सहारा देने के लिए बाँस की लकड़ी को और कसकर पकड़ा। एक एक सीढी पर दस-दस सांस फुंकी जा रही थी. और अभी तो पंद्रह सौ सीढियाँ बाकी थी.
आगे को चल रहे हमारे गाइड बेथ से छोटे बेटे को, जो तब पांच वर्ष का ही था, खेल में उलझाने को कहा. लेकिन खेल के साथ ही चढ़ाई भी जारी रखनी थी. अगर कोई पोखर, ताल-तलैया होते तो वो निर्बाध रूप से कंकड़ फेंकते हुए चल लेता …लेकिन हम तो एक बेहद संकरे रस्ते पर थे जो दोनों ओर से घने, विशालकाय, आपस में गुत्थे -मुत्थे वृक्षों, लताओं, झाड़ियों से घिरा था.
राह कठिन थी और बेटे को चलायमान रखना दुश्वार होता लग रहा था. तभी नज़र पड़ी Burmese Grapes (Bacuuarea Ramiflora) के पेड़ पर जिसे खासी भाषा में ‘सोह-राम -डॉन्ग’ के नाम से जाना जाता है.
नींबू के आकर के फलों से लदा पड़ा था और खड़ा खड़ा था निष्चल, माँ के दिमाग से अनजान। बेथ को कहकर कई सारे फलों के गुच्छे तुड़वाये और बेथ को एक-एक कर बेटे को देने के लिए कहा. माँ के दिमाग का अनुभवी तार बेटे के नव हिरना मन से जुड़ गया. उसने उन्हें इधर-उधर फेंकना शुरू किया और चढ़ाई के बारे में भूल गया.
जैसे जैसे वो ये फल-गोले फेंकता गया, एक-एक सीधी चढ़ता भी गया.
“मुझ पर नहीं फेंकना”, थकी सी आवाज़ में मैंने उससे चुहल की.
ऐसे ही हम सौ सीढी और चढ़ गए. अब हम चढ़ाई के सबसे कठिन हिस्से पर थे. नीचे देखने पर चक्कर से आने लगे. बैठ कर जरा सी आँख बंद कर अपने आप को पुनः व्यवस्थित किया कि तभी एक फल का गोला मेरे सर पर आ गिरा।
गुस्से का गुबार उठे उससे पहले ही खिलखिलाते हुए नन्हे क़दमों के तेज़ी से ऊपर भागने की मोरपंखिया रुनझुन ने उस गुबार को रोक दिया।
प्रमुदित होकर मैंने खुद ही अपनी पीठ थपथपाई कि मैंने लोक-जैविकी को इस डबल-डेकर रुट ब्रिज, जो कि लोक-इंजीनियरिंग का प्रशस्त उदहारण है, की ट्रैकिंग को संपन्न करने में उपयोग किया।
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मेघालय है छोटी-बड़ी पहाड़ियों का अनवरत सिलसिला जिसे यहाँ-वहां रोक लेती हैं अनगिनत नदी-नाले और उनकी छुटभैया धाराएं। लेकिन बरसात के बाद भी ये सूखती नहीं। हाँ धीमी जरूर पड़ जाती है कहीं-कहीं।
पहाड़ियों के सिलसिले को अनवरत बनाये रखने के लिए ख़ासियों ने सदियों पूर्व एक नायाब तरीका निकाला- पेड़ की जड़ों से इन धाराओं पर पुल बनाना जिसे root bridge के नाम से आज हम जानते हैं.
पेड़ की जड़ें यूँ तो मिटटी में ही जनमती, पनपती और विलगित होती हैं, किन्तु कुछ पेड़ों की जड़ें जैसे कि बरगद आदि में ये पेड़ की शाखाओं से भी निकलती हैं जिन्हे अपस्थानिक जड़ कहते हैं. फाइकस एलास्टिका नाम का ऐसा ही एक पेड़ इन खासी पहाड़ियों में बहुतायत से मिलता है.
इसकी अपस्थानिक जड़ें इन नदी-धाराओं के दोनों किनारों पर की पहाड़ियों पर जमी चट्टानों, पथ्थरों पर जड़ जाती हैं. ये जड़ें इन शिलाओं को चारों तरफ से बांधते हुए नदी के तल तक जा पहुंचती है. इस तरह वह जल द्वारा मिटटी के कटाव से होने वाली घातक क्षति से भी संरक्षित रहती है.
इसके साथ ही सुपारी के पेड़ भी यहाँ की जलवायु में बड़े ही फलते-फूलते हैं. आस-पास की असीमित हरियाली में अपना भी हस्ताक्षर करने के लिए ये बड़े ही ऊँचे उठते हैं और इस प्रयास में खो देते हैं तने का मोटापा।
इन पतले, लम्बे सुपारी के तनों को लम्बाई में काट कर इनका भीतर का गूदा निकाल लिया जाता है. अब इन पोंगले तनों द्वारा फाइकस की अपस्थापित जड़ों को मनचाही दिशा में रुपित कर ये जड़-पुल बनाये जाते है.
इसके भी दो तरीके हैं.
जब धारा का पाट अधिक न हो तो एक किनारे पर लगे वृक्ष की जड़ों को सुपारी के तने से गुजारते हुए दुसरे किनारे तक पहुँचने तक प्रतीक्षा की जाती है जो कि कुछ वर्ष लेती है. फिर इन जड़ों को दुसरे किनारे मिटटी में रोपित होने देते हैं.
अगर पाट विस्तृत हो तो दोनों किनारे लगे वृक्षों की जड़ें आपस में गूँथने के लिए मोड़ दी जाती हैं.
इतना ही नहीं, इन पुलों के लिए दो से ज्यादा आधार तथा रेलिंग भी इन्ही जड़ों को मनचाही दिशा देकर बनाई जाती है. इस तरह के पुल निर्माण में दस से पंद्रह वर्ष तक लग जाते हैं.
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इस ट्रेक का आरम्भ किया हमने चेरापूंजी के तीरना गांव से, सुबह उतनी जल्दी जितना छोटे बच्चों के साथ संभव होता है. बेथ, हमारा गाइड, हाथ में बांस की लकड़ियां लिए इंतजार कर रहा था.
जब उसने देखा कि एक ट्रेकर की लम्बाई तो लकड़ी से भी कम है तो तुरंत भाग कर वो दूसरी लकड़ी ले आया. बस, इसी बात से उसने छोटे ट्रेकर का मन जीत लिया।
इस ट्रेक का डील-डौल जरा ज्यादा है. हमें एक ही दिन में 2500 फ़ीट नीचे जाकर पुनः ऊपर आना था. करीब 2500-3000 सीढ़ियां एक तरफ की. ये एक प्राकृतिक पथ नहीं है अब – यानि पगडण्डी, उबड़-खाबड़ पत्थरों से बने रस्ते, ऐसा नहीं। 90% राह पर कंक्रीट की सीढ़ियां हैं.
इससे पहले की हम इसके विनाश का NGO-type रोना रोयें, स्कूल जाते नन्हे कदम इन खूबसूरत नज़ारों की कठिन सच्चाइयां बयान करते हैं. नीचे बसे नोंगरियात, नोंगथीमयी, व मिनत्येग के गांव वासियों के लिए ये सीढियाँ ही बाहर की दुनिया से जुड़ने का एकमात्र रास्ता है.
धूप हो या बरसात, बच्चों, गर्भवती महिलाओं, बीमार या बूढ़े, सभी को, शिक्षा या अस्पताल के लिए इन सीढ़ियों से ही चढ़कर जाना पड़ता है.
अगर ट्रेक को हम चार भागों में विभाजित करें तो पहला भाग ढाल के हिसाब से सरल है. पहला भाग हमें घने तेजपान, कटहल, कीमती सफ़ेद मिर्च, दैत्याकार फाइकस, ऊँचे सुपारी के पेड़, बांस के झुरमुट, और दूर्वा से लेकर झाड़ी तक के सभी पदों से सुसज्जित वनों से लेकर होता हुआ, मिनिवेट का सीटीनुमा गान, कठफोड़वे की ठक-ठक और बारबेट की कूट-ु-रुक सुनाते हुए नीचे को उतारता है।
दूसरे भाग पर पहुँच कर इस ट्रेक ने अपना असली चेहरा सामने ला दिया। खड़ी सीढियाँ, और एकदम खड़ी उतराई- जिसे रोज़ाना जमकर चलने-फिरने का अभ्यास हो, उसे चक्कर न भी आये तो पैर तो अवश्य कांपने लगेंगे।
इस खड़ी उतराई ने नीचे उमस भरे गर्म वातावरण में पहुंचा दिया। पसीने से तरबतर और उमस से उमच कर छोटे जनाब ने और आगे न जाने की धमकी दी. झट से किशमिश, चॉकलेट और जूस निकाला गया.
बेथ ने अब तक की बातचीत से उसके नन्हे मन को टटोल लिया था. उसने फ़ौरन आगे ही एक नदी होने का कांटा फेंका, जिसमे बहुत सारे कंकड़ और अगर वो उठा सके तो चट्टानें भी, फेंकने का आटा लगाया।
मछली फ़ांस ली गयी. पसीने से तो हम भी तरमतर थे पर ध्यान न दे पाए. ये तितलियां जो इतना ध्यान भटका रहीं थी. या कहें कि अपने रंगों में अटका रही थीं. इसी अटकन-भटकन और मछली-पकड़न में हम ये दूसरा भाग उतर गए. माने आधा पर कर गए.
अब रास्ता समतल और सीधा दिखा। सबने राहत की सांस ली. किन्तु ये क्या- सांस तो फिर अटक गई. सामने नदी थी जिसे पार करने को स्टील के रस्सीनुमा तारों का पुल था. पाँव क्या पाँव का अंगूठा भी हिलाने से पूरा पुल हिल पड़ता था.
आरी के सामान चुभती रेलिंग को हाथ छीलने के लिए मज़बूती से पकड़ा। नीचे नदी, उसमे पड़ी शिलाएं, उस पर पुल का थरथराना, बड़ा दिल कड़ा करना पड़ा इसे पार करने के लिए. पर पुल ने धोखा नहीं दिया।
उस पार पहुँच कर अब नयनों को जरा इधर उधर घुमाया तो लगा कि मैं तो सावन की अंधी हूँ जिसे हरा ही हरा दीख रहा है. नीली छतरी तो फटफटा कर, कुछेक पेड़ों के बीच कहीं अटकी पड़ी थी. हवा की गंध भी हरी सी लगने लगी.
सो सामने भी काई-शैवाल जड़ी सीढियाँ ही अवतरित हुई.
साँसों की धोंकनी से हिम्मत हारते ह्रदय पंप को प्रज्जवलित किया और जा पहुंचे उन सीढ़ियों के पार, एक और स्टील के रस्सीनुमा पुल पर.
पुल पहले वाले से अधिक जर्जर, नदी और जवान। साइड की रेलिंग तो इस तरह कि मोठे-पतले सभी आसानी से इसमें से लुढ़क लें. बच्चे तो इसे एडवेंचर गेम समझ पार कर गए. वहां पहुंच कर उन्होंने साहसिक मम्मी को डरते देखा तो झट से पुनः चलकर आने को हुए.
बस इसी बात पर दिल मचल गया और पुल पार कर लिया गया. अब मनीष की बारी थी. उनका प्रदर्शन मुझसे बेहतर ही रहा. सामान्यतः उनका मुझसे बेहतर प्रदर्शन गुस्सा न आने के विभाग में ही होता है. खैर. सबके दिन आते हैं…
जैसे कि आज सीढ़ियों के दिन थे! घरघराते घुटनों और सिरफ़िराते सर के साथ, चढ़ते उतरते तीसरा भाग भी पर हुआ. दम लेने को बैठे तो देखा कि बड़ी-बड़ी लाल चींटियां जी-जान से जुटी पड़ी है. एक झटके से खड़े हो गए.
ढूंढ-ढांढ कर एक चींटी-मुक्त सीधी पर बैठकर जलपान करने पर दिमाग काम करने लगा. जिसे तय कर नीचे आये हैं, उसे आज ही पुनः तय कर ऊपर भी जाना है. बस, फिर क्या था. मान-मनुहार कर खान-पान का सामान कम किया।
इस बीच मनीष ने कैमरे का मेमोरी कार्ड बहुत ही भर दिया। इससे ऊब कर बच्चे पहले ही बेथ के संग आगे को चल दिए. पर अब भी मनीष का कार्ड और मेरा मन नहीं भरा.
कुछ ही देर में दोनों कूदते-फांदते वापस आये-” मम्मा। देखो एक रुट ब्रिज आ गया है.” सब साथ ही उस पहले अजूबे पर जा पहुंचे। जी भर कर कूदने पर भी ये पुल जरा भी न हिला।
ये एकल रुट ब्रिज था. जीवंत। जीवट।
इसकी ‘जड़ीय’ रेलिंग खुरदुरी थी पर थी जीवंत। इसका आधार मजबूत और जीवट। बेथ से पूछकर बच्चों के कूदने पर भी जरा विचलित न हुआ. जड़ों की अनेकानेक शाखाओं को कालीन की तरह बुनकर आधार बनाया गया था.
कहीं कहीं छूटे ताने-बाने को छोटे पत्थर से पैट दिया था. वृक्ष की मौन स्वीकृति पाकर फ़र्न और मॉस ने भी अपना आशियाना बना लिया था. पेड़ इसका जन्मदाता था की ये पेड़ की जन्मदाता, कहना मुश्किल था. किनारे पर खड़ा पेड़, स्व में स्थिर होकर, कृष्ण की तरह समय को दूर से देख रहा था. हर बीतते वर्ष के साथ ये वृक्ष और ये पुल और भी मजबूत होता जाएगा। गीता की तरह.
सचमुच हमारे खासी पूर्वजों की लोक-इंजिनीरिंग का सजीव प्रमाण।
इस विरासत को पाकर एक नव-ऊर्जा मिल गयी. उत्सुक क़दमों से चलायमान होने पर थकान भूल गई. चाय की दूकान आने पर उत्साह और बढ़ गया. चाय के लिए नहीं, इसके आखिरी पड़ाव होने से. इसके ठीक बाद, कुछ ही सीढियाँ उतरकर हम मंज़िल पर पहुँचने वाले थे.
पहुँच गए. सांस थम गई.
दुमंज़िला रुट ब्रिज!
ठीक एलिवेटेड रोड नेटवर्क की तरह.
पेड़ का अपना ही एक जटिल जड़-विन्यास था खम्बों के रूप में, जो पेड़ को मजबूती दे रहा था इस ब्रिज पर आने-जाने वाले यातायात को वहन करने की.
एक और जड़-विन्यास था इस ब्रिज के लिए, दोहरा। सुई जैसे फ़र्न के पर्ण, बड़े हृदयाकार पर्ण, गोल और लम्बे पर्ण, छोटे और मोठे पर्ण, हलके हरे और गहरे हरे पर्ण, सब मिलकर साइड रेलिंग की सजावट में बुने खिल रहे थे.
पुल के आधार के नीचे से भी पर्ण कर्ण-फूलों की तरह झूल रहे थे. ढाईसौ साल पहले, जब हमारे खासी पूर्वजों ने इसे बनाया होगा तो क्या उन्होंने कल्पना भी की होगी कि उनके इस छुपे खजाने को देखने दुनिया आ पड़ेगी।
कि बच्चे इस पर साइकिल चलाने की चाह रखेंगे। कि कई जल्द चलते और कई आराम से चलते कदम उस पर से गुजरेंगे। या कि प्रेमी युगल भी एकबारगी एक-दूसरे से निगाहे हटाकर इसके सौंदर्य में ठिठक जाएंगे।
जब इतना सौंदर्य भरा हो, इतने वर्षों का अनुभव बिखरा पड़ा हो, और पसरी पड़ी हों अनगिनत साँसों की माला, तो किसका ह्रदय तरल न होगा।
लेकिन इतने पर ही उस चितेरे ने बस नहीं किया। एक झरना जो झर कर फैले और भर दे इस असीम हरित निशब्द स्थल को और फिर चल पड़े नदी का रूप लेकर, इसी दुमंज़िला ब्रिज के नीचे से.
छप छप के साथ कुछ सयानी, कुछ बचपनी हंसी ने ख्यालों को रोका। बच्चे और मनीष पानी में कूद पड़े थे, और मुझे बुला रहे थे.
पानी पहले पहल एकदम करारा ठंडा, फिर ठंडा और कुछ ही पलों में शीतल लगने लगा. राह में शुरुआत में मिले इक यात्री हामिद हमसे काफी पहले यहाँ पहुंच चुके थे.
छुट्टे होने के भी अपने फायदे हैं. उन्होंने झरने के ठीक नीचे आने के लिए उत्साहवर्धन किया। मनीष जा पहुंचे, पर भाई हम तो सुरक्षित दूरी पर ही रहे.
पानी से बहार आकर जाहिर है भूख लगी और इसी बहाने बैग हलके हो गए.
दो घड़ी बिताने के बाद अनमने भाव से लौटने की चढ़ाई शुरू हुई. इसी चढ़ाई में जब छोटे ट्रेकर को चलाने की समस्या आन खड़ी हुई तो उन फल-गोलों का सहारा लिया। उसने उन्हें यहाँ-वहां फेंकने में व्यस्त होकर 2500 फ़ीट की लौटने की चढ़ाई चढ़ ली.
शुक्रिया बेथ. शुक्रिया “सोह-राम-डिंग” (Burmese Grapes)!!
(१. वर्षा होने पर सीढियाँ बहुत फिसलन भरी हो जाती हैं.
२. नीचे, डबल-डेकर रुट ब्रिज के यहाँ एक छोटा सा गेस्ट हाउस है जिसमे आप ठहर सकते है. राह में मिले हामिद वहीँ ठहरे थे.
३. चेरापुंजी से tyrna गांव लगभग 12 किलोमीटर है.
४. हम laitkynsew गांव में ठहरे थे जो tyrna से तीन km दूर है.
५. इसी ट्रेक पर हल्का सा हटकर सबसे लम्बा रुट ब्रिज है.)
चेररापुंजी में बारिश में की गयी walk आप यहाँ पढ़ सकते हैं.
आपका यह लेख पढ़ने में तो अच्छा लगा
लेकिन पढ़ने के साथ-साथ हमें कुछ ऐसा लगा जैसे हम सच में खतरनाक और पसीने से तरबतर कर देने वाले ट्रैक को स्वयं कर रहे हैं।
देखते हैं हमारा मौका इसको आमने सामने देखने का कब लगता है।
आपके अधिकतर लेख इंग्लिश में हैं लेकिन हिंदी में भी आपकी अच्छी पकड है।
स्कूल, कॉलेज की शिक्षा मैंने हिंदी में ही पूरी की. उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी को माध्यम बनाया। बहुत मेहनत लगी थी. फिर बोलना सीखने में उससे भी ज्यादा।
पढ़ने लिखने में बहुत अधिक रूचि है और दोनों ही भाषाओं से दीन और दुनिया दोनों जानने की आकांक्षा पूरी करती हूँ. डायरियां भरी पड़ी है हिंदी के गद्य और पद्य संकलन से. सोचती हूँ उसे भी साँझा करूँ। टाइपिंग की कठिनाई का बहाना ज्यादा न चल सका. इंसान अपने आपको कब तक धोखा दे सकता है?
ट्रेक कठिन है, खासकर छोटे बच्चे के साथ, किन्तु आपके लिए नहीं। हाँ, आसान भी नहीं है.
लेखन की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार।
आपके साथ साथ मैंने भी देख लिया डबल डेकर ब्रिज।
यानि लेखन सफल रहा.
बढ़िया जानकारी, शुभकामनाएँ
धन्यवाद। …आपका नाम नहीं ज्ञात हो पाया लिंक से भी.
Pata nahio kab se jana chah raha hun. pata nahi kab ja paunga. par lagbhag yatra karwakar apne bhi ek dhakka de hi diya hai. dhanyavaad
समय का धक्का लगने पर जरूर जा पाएंगे। पसंद करने के लिए धन्यवाद।
वाह बेहद खूबसूरत यात्रा वर्तान्त जिसे पढ़ दिल कूद पड़ा चेरापूंजी की इस हरयाली छावनी में…हिंदी में हम तक पहुंचाने के लिए आपका शुक्रिया ..
धन्यवाद गौरव।
सांसो की धौकनी से हिम्मत हारते ह्रदय पंप को प्रज्वलित किया…वाह क्या भाषा है…और जो इतनी मेहनत से यह कुदरत का बेशकीमती नजारा देखा है वो पूरा वसूल है…बहुत ही बढ़िया पोस्ट
धन्यवाद प्रतीक। भाषा के चयन को नोटिस करने के लिए धन्यवाद।