वर्कला की साँझ

दूर नीले समुंद के उस पार, स्वर्ण मृगीय क्षितिज पर खड़े होकर जब सूरज का लाल गोला डुबकी लगाने की तैयारी कर रहा होता, समंद के इस पार, वर्कला के तट पर जीवन बड़ी हलचल में व्यस्त होता। मछुआरे अपनी सदियों से ज्यूँ की त्यूं रही, लकड़ी के तीन लट्ठों को बांध कर बनी नावों को पुनः समुद्र से तट पर ला रहे होते। वे तो ये अवश्य ही जानते थे –

" जाल समेटा करने में भी 
वक्त लगा करता है मांझी ,
मोह मछलियों का अब छोड़। 
अभी क्षितिज पर कुछ कुछ लाली 
जब तक रात न घिरती काली ,
चल अपना सामान बटोर। "

मछुआरों को तो अधिकांश समय पता चल भी जाता है की लौटने की बेला आई, लेकिन मनुष्य को ये कभी पता नहीं चल पाता या जान कर भी अनजान बना रहता है कि लौटने की बेला भी आएगी और दबे पांव, बिना कोई आहट किये आएगी।

" मौत अचानक भी आती है
सुख दुःख सब हर ले जाती है ,
गठरी में लगता है चोर। "

मछुआरे अपना माल समुद्र से जाल में बटोर कर लाते और तट पर आकर उन्हें जाल से छुड़ा कर टोकरियों में भरते जाते।

वर्कला बीच

उनकी सधी हुई अंगुलियां भिन्न भिन्न जलीय जीवों को ठीक से जाल से छुड़ाती ताकि उनके माल का ठीक दाम मिल सके। अपने जीवन को चलाने के लिए जीवों को मारा तो जाता लेकिन उनकी मृत देह का बहुत ख्याल रखा जाता। तब मुझे भगवान् महावीर और बुद्ध की वाणी याद आती – ” अहो! इस संसार में जीव ही जीव का भोजन है. जीवन दुःख है जो सुख की आस में व्यर्थ होता चला जाता है। मृत्यु का जाल कब जीव को फांस ले, नहीं पता.”

बीच बीच में, जाल में फंसे अवांछित जीवों को मछुआरे रेत पर फेंकते जाते। इसी भोजन की आस में कौवे भी बीच पर मनुष्यों की ही तरह चहलकदमी करते अपने कदमों के निशान छोड़ते जाते। कैसे नियति अथाह जलराशि में जीते इन जीवों को जो कौवों की पहुँच से बाहर थे, उन्ही के मुंह का निवाला बना देती। तब गुरु अर्जन देव जी के पद याद आते –

"काहे रे मन चितवहि उदमु जा आहरि हरि जीउ परिआ।
 सैल पथर महिं जंत उपाए ता का रिज्क आगे करि धरिआ।। 
हे मनुष्य तू क्यों इस जीवन के गुजारे की व्यर्थ चिंता में लगा हुआ है (ध्यान रहे उद्यम की चिंता करने को मना किया है, उद्यम करने को नहीं ), जबकि हरि स्वयं तेरे रिज़्क़ का इंतज़ाम कर रहा है। देख, उस प्रभु ने शिलाओं और पत्थरों के नीचे जीव पैदा किये हैं और उनको वहीँ खुराक दे रहा है."

इन सबसे बेखबर मेरा छोटा बेटा अपने रेत के महल बनाने में व्यस्त रहता। सावधानी से वो उन्हें लहरों के थपेड़ों की सीमारेखा से परे रखता। फिर भी जैसे जैसे साँझ गहराती, कभी कोई लहर अचानक आती और उसके सुरक्षित किले को मिटा देती। तब विचार उठता – जीवन इस रेत के किले जैसा ही है, जिसे कितनी ही सुरक्षा के दायरे में रखो, फूल पत्तियों, सीपों से सजाओ, परकोटा बनाओ, किसी पल एक लहर सब कुछ मिटा देगी। कबीर के दोहे अन्तःकरण में गूंजते

ऊँचा महल चुनावते , करते होड़म होड़ 
सुवरण कली ढलावते , गए पलक में छोड़ 
कबीर मंदिर लाख का, जड़िया हीरा लाल 
दिना चार का खेल है, बिनस जाएगा काल 
वर्कला बीच
वर्कला बीच

बीच बीच में वो खुद भी कभी लहरों के साथ खेलता, कभी नज़र उठा कर ढलते सूरज को देख लेता तो कभी मछुआरों को। लेकिन उसकी रूचि किला बनाने और लहरों के साथ पकड़म पकड़ाई खेलने में ही होती। फिर एक विचार उठता – मनुष्य को भी तो ऐसे ही कई संकेत मिलते हैं चेत जाने को, लेकिन फिर भी किले बनाने और जीवन-मृत्यु के बीच ऐसे ही पकड़म पकड़ाई करने में वो उन्हें देख कर भी अनदेखा कर देता है।

वर्कला बीच

इन्ही विचारों की लहरें आते जाते, मन की रेत पर पड़े किसी कूड़े को अपने साथ ले जाती और मेरे तट को थोड़ा और स्वच्छ कर जाती। हर बाह्य यात्रा एक अंतर्यात्रा बन जाती है और हर साँझ एक सीख, अगर हरि और हम चाहें तो.

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